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यादों की चिड़िया

अब मिलना नही होता तुझसे कभी पर , तेरे ख़त अब भी मिल जाते हैं , बिखरे हुए दानों की तरह मुझे यूँ ही  कभी कभी,  झांकते हुए से   कभी इस पल्ले से ...

मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

धूप-इक ख़याल सी

धूप इक ख़याल सी
किसी नाज़ुक एहसास सी
कि आँख खोलने से भी
डर जाती हो
नींद वो बेख़याल सी
नाज़ुक एक उम्र
खो गयी जो
आँख खुलने से पहले
ज्यूँ बदलियों ने ढक लिया हो
धूप का कतरा कोई
बेहिस ज़िन्दगी की दौड़ में
बस एक कतरा वही उम्र का
ज़िंदा रह गया

रविवार, 27 दिसंबर 2015

उम्मीद

एक टूटे रिश्ते का छोर पकड़ने की कोशिश
और अँधेरे में हाथ पाँव मारते लोग
एक अँधेरी सुरंग से गुजरते जाने का अहसास
जिसका कोई छोर है भी की नहीं
अनंत है ये अँधेरा
महसूस होता है कभी
पर सुबह तो होगी कभी
रौशनी हंसेगी सुरंग के उस छोर पर
जहां कोई तो होगा
हाथ थामे हुए एक नए सपने का
नयी उम्मीदों के साथ

रविवार, 20 दिसंबर 2015

बिन तुम्हारे

सोई व्यथा सी जग उठी,
कोई बदली नीर बन कर बह चली,
बिन तुम्हारे ;
जगती आँखें 
राह तक तक थक चलीं ,
सोती आँखें ,ख्वाबकुछ चुनती रहीं,
बिन तुम्हारे ;
नयन खोये या के सोये
रात सोये,स्वप्न जागे 
 प्रीत का हर गीत जागे,
हर सहर ,हर साँझ जागे ,साथ मेरे,
बिन तुम्हारे ;
इक पथिक ,इक राह सूनी
कल्पना भी रच ना पाई,भावभीनी
प्रणय गीतों से सजी,
रजनी सुहानी,
बिन तुम्हारे ;
बांसुरी की तान 
बसती हो जहां ,
कोई सांस ,
अंदर उनीदी सी जगी हो,
याद कुछ आता नही,
इक बोल कोई,
प्रेम जिस के कण कण में बसा हो,
बिन तुम्हारे ;
व्यर्थ सी इक कल्पना है,
रंग जिसमें भर सकी ना 
कोई भी कूची
रसहीन जीवन ,बेताल सांसें,
चल रही हैं और यूँ चल रहा है जीवन,
बिन तुम्हारे,बिन तुम्हारे ll,

शनिवार, 21 नवंबर 2015

उन्हें सुनाने को-

कही  खाली सफे पे इक  अधूरी सी इबारत
 लिख के छोड़ दी थी कभी
आज भी कुछ अनलिखे हरफों की सियाही
 मेरी नीदो को सोख लेती हैं

उस सूखी सियाहीकी नमी कहीं
अंदर जज़्बातों में घुली है शायद
दाग पानी के छूट जाते हैं
सियाही यादों की  मिटती ही नहीं

सरहाने  तकिये पे निशाँ कुछ दागो  के है
रात फिर तुम मुझे याद बहुत आये थे
रात फिर उमड़े थे ज़ज़्बात कुछ रवानी से
रात फिर कोरों पे टूटे सितारे से झिलमिलाये थे 

बुधवार, 11 नवंबर 2015

--with due respect to all seculars

this is what most of us feel .every one criticising pseudo secularism is not communal --with due respect to all seculars
Utkarsh Tripathi

The amount of sense quora talks is amazing
"I am confused as a hindu who wants to stay secular and each day this confusion increases……Yes I am born as a hindu in India ,went to a Christian school ….celebrated diwali at home but Christmas in school with equal fervor .Visit to a cathedral or hearing bible verses never instilled any fear that my religion is at stake …because as a hindu I am supposed to be secular and accept all religions.
In india its fashionable to be a secular hindu….
But I really wonder aloud today, what would have been the reaction in media and our so called intellectuals if a school run by a hindu trust or organization had opened a school amongst Christianity dominated area and had sung verses from Gita or Mahabharata!!! All hell would have broken loose for sure .
14 years of education in a Christian run school did not make me a Christian ..i am still a hindu but I have one more reason in my life to be happy when its Christmas …
As a hindu if I can handle 33 crores of gods and deity ,I can definitely handle few more gods and still be a hindu…I don’t fear ..I am a hindu …I imbibe ..i don’t run away ….but what am I supposed to do when I see my muslim and Christian friends refusing Prasad /or rejecting getting a tilak done on their forehead…how many of muslims and Christians have visited ..vaishno devi or tirupati…
Now …just ask how many hindus have visited Ajmer Sharif or Deva shareef or Swarna mandir or cathedral .Is so called secularism has to be only a Hindu’s responsibility !
If India has to be secular then state should not interfere with religion …but then why should my tax money has to go for Haj subsidy ..Is that not a special favour to one religion .This is my question …but as a hindu am still confused….if just one haj subsidy allows my muslim brothers and sister to be happy then am happy to still let them do it .I would love to hear stories of their trip ….am happy to say “Eid Mubarak”…I don’t fear because I am Hindu .
Why my so called intellectuals never blamed successive governments for allowing such communalism …why they never returned their awards ….
Why St.Stefens in Delhi is allowed to give preference only to Christian candidates while hiring ……They exist on a piece of land which belongs to INDIA and not to Hindus,Christians or Muslims …then preference to anybody on the basis of religion is communalism and not secularism.
Why authors and scientists and people like Dibakar bannerjee never protested against St Stefens ?
Currently am residing in a country which claims with pride that we are a Christian nation and the world media doesn’t target it at all .Britain easily refuses permission to create a mosque higher than St.Pauls cathedral…A mosque which will be built by their own citizens living and working in this country ,,,but BBC doesn’t run a documentary on the plight of muslims being tortured and not given equal rights in Britain !! They don’t get a lecture from Obama to embrace secularism as yet !!
However ,in India I still don’t support demolishing a mosque which was built by an Invader !!A nation with 80% of its populations as Hindus has taken more than 60 years to built a temple for their deity.As a Hindu I would still support a temple and a mosque together there …..rather than just a temple …I don’t boast my religion …..and I Don’t believe that I am the best…I believe that all are equal for I am a Hindu.
If my son has to marry a Christian girl tomorrow ..I will not ask the girl to convert…I have no such concept ..but my son will have to convert to christianity just to marry the girl of her dreams ….is that not communalism which is openly being practiced by minorities in India ….!! If inter-cast marriages are supported then why not inter-religion ……let there be true secularism in India …..and not this blurred version of secularism,created by pseudo –intellectuals !!
I have no award to be given back …no talent to make a documentary or debate the issue on a TV channel.But my belief that God is one and all religions should be respected gets shaken everyday in my Mind….As a Hindu …am I being taught to stay oppressed in India ? Is that secularism??
I am a man ,a hindu man ,who wants to teach his son to respect all religions …and want to tell him that if you light a candle in a church, bow your head in a Mosque , do seva in a Gurudwara…. You will not cease to be hindu …….for you are a Hindu and always will be a hindu .You will never learn to fear .
Yes I am…… confused …..but I still don’t fear for I am a Hindu .I will not eat Beef but will not support a ban on it !! but please don’t mock my religious feeling by doing a Beef –Party just to mock me !! atleast that much I can expect .
If you want to return your award then return it and say that you ‘ll accept it back only when beef –ban is removed ,haj subsidy is stopped ,polygamy among muslims to be declared illegal,no special reservations for any minority in their institutions ....,triple Talaq to be stopped and not compulsion of change of religion in inter –religion marriages !!
Thus, to conclude I feel Hindus and Indians wish to live in harmony with the minorities, but different picture is been drawn by some mean people."

गुरुवार, 5 नवंबर 2015

शहर -ए-बनारस


दिन रात चलता ये शहर, सदियों से जगता ये शहर ,
गुमनाम गलियों का ये शहर ,हर जन का प्यारा ये शहर l

 ये गंगा किनारे बसता शहर,ये नदिया के धारों पे तिरता शहर ,
हर सुबहा से पहले जगता शहर ,कब है ये सोता मेरा शहर ?

निःशब्द कोलाहल से पटता शहर ,है बाबा का प्यारा ये हँसता शहर
मरने वालों को बैकुंठ देता शहर, है महाकाल का ये पावन शहर l

माँ गंगा किनारे का अनुपम शहर, ज्ञान का पुंज सदियों से अपना शहर
हर सुबह का सफर है ये अपना शहर, हर सहर की सहर है ये अपना शहर l



चौराहो औ गलियों में बसता शहर ,कचौरी जलेबी से भीना शहर
गंग जमुनी तहज़ीब का नज़ारा शहर ,हर शहर से है न्यारा बनारस शहर l

फोटोज़ साभार 'बनारस समाचार' से

शनिवार, 31 अक्टूबर 2015

--आज तू कहाँ है ?


वो काशी की अस्सी
वो अस्सी के घाट
वो घाटों की सीढ़ी
 वो सीढ़ी से सट के बहती
 नदिया की लहरें -
आज भी;
 ढूंढती हैं ,पहचानती है मुझको ;
तेरे ही नाम से ,
सूंघती हैं स्नेह से माथ मेरा
 और पूछती हैं ;बिटिया
अब तेरी माँ कहाँ है --?



क्या बताऊँ मैं उनको
 कि क्या समझाऊँ -तू कहाँ है ?
कभी यूँ ही रातों में
चिहुंक कर -
जग जाती हूँ जब भी
 दुनिया की उलझन से
 थक जाती हूँ जब भी ;
उलझ जाऊं कहीं
या डर जाती हूँ जब भी
हौले से ;
महसूस करती हूँ तुझको
 अंदर किसी कोने में
 और पूछती हूँ खुद से
तू कहाँ है माँ --?
आज तू याद आती है बहुत
 धीरे से कानो में कह जा माँ --
--आज तू कहाँ है ?



सोमवार, 26 अक्टूबर 2015

प्रतिरूप--

बेटियां क्या हैं माँ के लिए --

एक बीता हुआ सा बचपन हैं
एक गुजर गया वो सावन हैं
माघ महीने की कुनकुनी सी धूप हैं
बेटियां बस माँ का ही प्रतिरूप हैं

कुछ जी लिया वो जीवन हैं
कुछ छूट गयीं वो आस हैं
शरद पूर्णिमा की पवित्र चांदनी है
तो कभी बैसाख में फागुनी बयार हैं

अपने जीवन के फलसफे हैं वो
अपने अनुभवों का निचोड़ हैं
जो जी लिए खुशी के वो लम्हें हैं
माँ के दिल की बेटियां तो धड़कन है

कहीं माज़ी की गलतियों के
सीखे कुछ सबक भी हैं
कुछ तीखे कुछ कड़वे
यादों के.अहसासों के ' घूँट भी हैं

हम भी मुकम्मल नहीं हैं न थे कभी
तंज़ उनके हमें सिखाते हैं
 बात कोई कहीं जो अखर जाये
अपने बुजुर्गों की याद भी दिलाते हैं

उनकी बातें कहीं जो गड़ती हैं
तो अपनी कही भी याद आती है
और कल की किसी बेरुखी पे आज
अफ़सोस में आँखें भी भीग जाती हैं

बेटियां क्या हैं माँ के लिए --
साध हैं आस हैं सबक हैं प्यास हैं
क्या ना कहें क्या-क्या कहें--
बेटियां बस अपना ही एक प्रतिरूप हैं ll

गुरुवार, 15 अक्टूबर 2015

बेफिक्र हँसी--

हंसी तो आती है अब भी मगर, 
 दिल खोल के हँसते हैं अब भी मगर
क्या बात है के ताजादम नही होते,
 क्या बात है वो रौनक अब नहीं आती

कितने बोझों तले दबी होती है,
कितने शिकवों की नज़र होती है ,
हर दिल को छू के गुज़र जाए जो ,
 वो बे फ़िक्र हंसी अब नहीं आती l

इक उम्र जो छू के गुजरती है ,
साथ ले जाती है वो गुल की रौनक ,
कहने को तो कली खिलती है ,
पर ओस की बूँद एक उड़ जाती है l

बचपन तेरी यादों का क्या कहना,
बचपन तेरी मासूमियत को सलाम
झरनो सी फूट कर जो बहती थी ,

मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015

तस्वीर--

एक तस्वीर देखी थी उस रोज किसी किताब में निकली थी
कुछ पहचानी सी दिखती थी
कुछ अपने गाँव घर सी दिखती थी

हाँ ; वो  दीवाल   पर लगी  खूँटी  से
  लग  रहा  था ; और  शायद ;
 फर्श  के  पत्थरों  ने  भी  कुछ  बताया  था
मुझे  पहचान  के कुछ  तो हंस  दिए  थे 
मेरी  नादानी  पे कुछ कुछ ने  मुंह  बनाया  था
 बचपन  गुजारा था  इसी  आँगन  में  
अब  यादें  भी  बदगुमां  हो  गयीं
 कितना  नाशुक्रा  है  आदमी
 ये  इशारे  में  हमसे  कह  गयीं
                                                                    वो गाँव ,वो घर ,वो आँगन ,
                                                                             कितने बेगाने हो गए
                                                                     रहते अब भी हैं लोग वहाँ पर
                                                                  कितने हम अजनबी से हो गए
कभी यादों की डोर थाम कर
जो कभी पर्दा सा उठाते हैं
वो आम की डालियाँ और
शादियों के गीत याद आते हैं
                                                                  वो आँगन के खटोलों में
                                                             सारी सारी रात की सुगबुगाहटें
                                                                    और पौ फटते ही
                                                                वो चाय की अलामतें   
                                                             
बर्तनो की लुक छिपी वो
वो कमरे -कमरे की तलाशियां
वो खिड़की ,ए -बखरी ,ओ- बखरी की दौड़
कुछ भी तो नहीं भूला
 ;                                                               वो गांव वो घर वो बचपन
                                                               बस हम ही अजनबी से हो गए
                                                               वो जिनसे रोज झगड़ लेते थे
                                                       आज भी मिल जाते हैं कभी चौराहे पर
चेहरे पे मुस्कान सजाये हुए
मगर कितनी बेगानी सी  मुस्कान
है  ये ,उन कुश्तियों के सामने

रविवार, 11 अक्टूबर 2015

तलाश-एक दौर की

पुरानी यादों में नए ज़माने के अक्स ढूढ़ते हैं
की हम झुर्रियों में खोये वो नक्श ढूंढते हैं
गुज़र चूका  जिन राहों पे इक उम्र का कारवां
मंज़िलों से पलट कर उन रास्तों के निशाँ ढूंढते हैं

खत कुछ बिन मज़्मून ,बिना नाम के जाने कहाँ पहुंचे
हम आज भी बेखबर किसी खत में अपना नाम ढूंढते हैं
कभी वक़्त में कभी रेत में कल जो बिखर के  रह गए
आज उन  बेखबर से लम्हों  की खोयी पहचान ढूंढते हैं

गुरुवार, 8 अक्टूबर 2015

बहुत तन्हा हूँ मैं ;

आज आवाज़ न दो कोई मुझे
बहुत तन्हा हूँ मैं ;
अपनी ही परछाइयोंके साथ
हल्की सी आहट भी
डरा देती है मुझको
कि आने वाला कोई -
--अपना न हो'
डर ;अब अँधेरों से नही लगता ;
उजालों की आमद से लगता है;
अँधेरों में अपना साया भी .
साथी ही सा लगता है ,
कहते हैं, जब दर्द बढ़ता है
गम की दवा बन जाता है ;
यूं ही खामोशिया तनहाइयाँ
अक्सर मुझसे बातें करती हैं .
आज रहने दो बस
 अकेला मुझे
मेरी परछाईयों केसाथ '
आज ;आवाज़ ना दो कोई मुझको
--आज बहुत तन्हा हूँ मैं

सोमवार, 5 अक्टूबर 2015

माँ के नाम पर

जलती हुई काशी धधकती हुई कशी
 और कराहती दादरी
दो माताएं और उनके आंसू पोंछने को
खून से सने वस्त्र लिए पुत्र
वाह रे प्रेम ,वाह री भावनाएं
गंगा माँ है;  हमारी है ;
चाहे गन्दा करें ,मैला करें ,
लाशों से पाट दें या के
खून की धाराएं बहा दें --हक़  है
तुम होते  भी  कौन  हो
 पूछने वाले, कहने  वाले, टोकने  वाले
गौऊ माता है
अधिकार हमारा है -मारेंगे नहीं
चाहे सडकों पे खुला छोड़ दें
 चाहे उसकी संतति को भूखा मार दें
सारा दूध निचोड़ के
तिजोरी भर लें
चाहे पीछे से कसाई को सौंप दें
 मारेंगे नहीं अपने हाथों से- वादा है
कसाई खाने चलाने देंगे
 विदेशों को जाने देंगे
पर तुम जो खाओगे तो ये अधर्म है
खाना है तो पांचसितारा में खाओ
अपने घर में तो हम न खाने देंगे
इन सारे किस्सों में एक और भी है- माँ
उपेक्षित अपमानित पीड़ित दुखित
भारत माँ -हर बार
 तलवार की धार से चीरा है सीना उसका
हर बार टुकड़े किये हैं उसके
कर डालो- फिर कर डालो
भूत, वर्तमान ,भविष्य; कुछ भी अनदेखा नहीं है तुमसे
आगत का भी अंदेशा है तुमको
फिर भी बढे जाओगे -मदहोश की तरह
उनकी राहों पे ,जो खड़े हैं
उस छोर पे खंजर लिए हुए
आगत भी छुपा नहीं तुमसे
फिर भी कर डालो -टुकड़े कर डालो
माँके -माँ के लिए माँ के नाम पर

रविवार, 4 अक्टूबर 2015

रक्तबीज--

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एक सवाल



  • SocialTwist Tell-a-Friendकोई नहीं जानता 
खुशियों के कदम कब भटक जाएंगे
आंसुओं की राह पे चलते चले जाएँगे
मुसकुराते इन चेहरों पे
कतरे अशकों के झिलमिलाएंगे
आबाद हैं ये घर अब तक
कल को लुट भी जाएँगे
कह सकता है कौन
कल तलक ये भी आबाद थे
भटकते हैं जो गली -गली ,
किसी घर के नूरे चिराग थे
पूछती हैं आँखें ये
 सवाली बन कर ;
खता क्या हो गई
कि घर से हो गए बेघर
पूछो इन सियासतदानों से
या मजहब के ठेकेदारों से
कि ख़्वाहिशों पे अपनी
 घर क्यों मासूमों के जलाते हो
बातें दीन -ओ धरम की  करते हो,
 क्यों इन पर न तरस खाते हो
दंगों में रोज़ जो मरते हैं
,हिन्दू नहीं मुसलमान भी नहीं वो
दम तोड़ते हैं जो नफरत में,
किसी घर के निगहबान है वो
झुलस जाएंगी कितनी कोंपलें,
 बिना घर की पनाहों के
भटक जाएगी रस्ता, मासूमियत ;
बिना सरपरस्तों की छाँव के
कैसे सोते हो चैन से
 घर जा के तुम ,
अपने बच्चों से नज़रें कैसे मिलाते हो
हैरान हूँ कि अब तक ज़िंदा हो ,
शर्म से मर भी नही जाते हो
रक्तबीज – हो क्या ‘
हर हैवा नियत में बढ़ते जाते हो
मरती तो है इंसानियत -
तुम तो बस कहकहे लगाते हो।

Homoeopathy Community

होम्योपैथी शायद सर्वाधिक कॉन्ट्रोवर्शियल पैथी या लाइन ऑफ़ ट्रीटमेंट -- इतनी छोटी मीठी गोलियां
मर्ज़ ठीक करेंगी -?कैसे /
फिर दवा का अंश भी तो नाम मात्र ही है -कैसे काम करती हैं --करती भी हैं -?
मगर फिर भी जब हर दरवाज़े से लौटते हैं खाली हाथ तो होम्योपैथी याद तो आती है -- थोड़े संदेह के साथ ,किसी के बताने पर ही सही , मगर याद तो आती है --और लोग कहते हैं -कि काम भी करती है और कभी कभी चमत्कार भी --जानना चाहते हैं --कैसे - तो आइये जुड़िये मेरे साथ --पूछिए अपने सवाल /शंकाएं
https://www.facebook.com/Homoeopathy-1040345242650499/timeline/

शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

अस्तित्व कहाँ ?

अस्तित्व कहाँ ?कहाँ है मेरा वज़ूद ?
यह नीड़ मेरा है भी कि नहीं --?
आज भी -अगर सब कुछ तुम्हारा है
तो फिर मेरा क्या है ---?
इक सफर जो हमने
शुरू किया था साथ साथ
एक घर जो हमने बनाया साथ साथ --
एक नींव जिसमें सधती रही मैं
और रचते रहे तुम गुम्बद चौबारे
आज भी घर मेरा कहलाता है
और जाना तुम्हारे नाम से जाता है
आज भी इतनी साधना इतनी तपस्या
इतनी ताबेदारी इतनी वफादारी
के बदले मेरा क्या है --?

तुमने मुझे छत दी
आसरा दिया सर पे आँचल दिया
मैंने तुम्हें घर दिया परिवार दिया
जंगल सी इस दुनिया में सर छुपाने को
अपना कहने को एक कोना दिया
तुम्हारे अंश को
अपने में जिला कर
तुमको ही सौंप दिया
और तुम दे न सके मुझको
स्वाभिमान मेरा
पग पग पर करते हो अपमान मेरा
पूछते हो आज भी
कि मुझको दोगी क्या
दे सकती हो क्या
जो है सब मेरा ही तो है
इस घर में तेरा क्या है ?
मैं खुश फहमी में जीती रही
घर को अपना कहती रही
सुलगती जलती रही राख में बदलती रही
और आज
मेरा कुछ भी नहीं
और आज मैं कुछ भी नहीं
वाह रे पुरुष वाह री तदबीर
वाह री औरत आह ये तकदीर !!

बुधवार, 2 सितंबर 2015

इक साँझ कुछ कुछ उदास सी

इक साँझ कुछ कुछ उदास सी  बस तेरे अहसास सी

तसव्वुर तेरा मेरे ख्यालों का खामोश कारवाँ ही सही
कोई मंज़िल न सही इक गुमनाम सफर ही सही

माना की हकीकतें सपमो से जुदा होती हैं
ये किसने कहा है की सपने नींद की उम्र से जी ते हैं

दूरियां दूरियों के पैमाने नहीं होती
पलकें बंद करते ही सिमट जाती हैं -ख्वाबों में

बुधवार, 26 अगस्त 2015

तेरी चूनर


इक बंद तिज़ोरी सपनो की
जैसे गलती से है खुल बैठी,दो चार यहाँ ,दो चार वहाँ
 हर कोने से ,हर नुक्कड़ से

कुछ लुके छिपे कुछ भूले से
कुछ आंसू में धुंधलाये से,कुछ बोझिल तेरी यादों से
कुछ हैं मुस्काते यादों में
कुछ बांह पसारे आये हैंll

कैसे इनको अब  बाँध के मैं
पिंजरे में फिर से  बंद करूँ,घुट  जाएँ इनकी सांसें तो
क्या हमखुश भी रह पाएंगे?

चुन चुन कर अबइन यादों को
 इन सपनो को,उन वादों को
 इक 
चूनर सी सिलवाई है
अब
 डाल के इसको चेहरे पर
  नकी छाया में चलते हैं

 क्या हुआ अगर ये मिल न सके
 क्या हुआ अगर वो मिल न सके ll

सोमवार, 24 अगस्त 2015

दुआओं के रिश्ते--

जब भी तुझको याद करते हैं
 इक दुआ का ख़याल आता है
मेरी साँसों से निकली
तेरी हमसफ़र थी
इक तार तेरे मेरे दरमियान
दुआओं में बहते आंसुओं का रिश्ता —-
–समझना/समझाना बेहद मुश्किल है !

शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

दरमियान


चलो कहीं दूर चल के मिलते हैं
उजालों और अंधेरों के दर्मियां
शाम और  रात के बीच कहीं
झुटपुटा सा अन्धकार हो
हलकी सी रोशनी हो
आदर्शों के इश्तिहार न हों
वर्जनाओं की  दीवार न हो
ना तुम  हो, न मैं हूँ;
 न दुनिया ही  के झमेले हों
न पैरों में हो आत्म मंथन की जंजीर
क्या सही क्या गलत की उलझनें
बस मासूम सा एक प्यार हो
जो हो न सका कभी वो इज़हार हो
तुम्हारी बाहों में मैं सुकून पा जाऊं
मेरी आँखों में तुम अपनी वफ़ा पढ़ लो
कोई तो ऐसी जमीन हो आसमान हो
जहाँ तुझसे आके मिलूं मैं
और फिर तुझमें ही फ़ना हो जाऊं

बुधवार, 19 अगस्त 2015

प्यार की इंतिहा

बैठेहो कभी घंटों किसी तस्वीर के आगे
     अनवरत बिना कुछ बोले
बिना कुछ सोचे बिना कुछ समझे
बस देखतेउन आँखों की गहराइयों में
अकेले उसके साथ होने का अहसास
      कुछ अलगसी दुनिया
    कुछ पाने का अरमान नहीं
    कुछ खोने का भय नहीं
     सिर्फ एक सिहरन सी
       सिर्फ एक छुअन सी
 मानो लहर कोई समंदर की भिगो गयी हो धीरे से
       और भीगी ठंडी रेत से उठती
     तपन को समो लेने का एहसास 
 आँखें मूँद के उस पल उस चाहत को
        पीने का अहसास
         नही किया न--?
      तो कैसे समझ पाओगे
मेरी मोहब्बत को, मीरा कीपूजा को,
       राधा के प्रेम को
   दीवानगी है ये प्रेम नही है 
  कहोगे तुमजानती हूँ मैं
 मगर प्यार की इंतिहा ही तो है दीवाना पन

नींद-

इक नींद सी आती रही
   इक ख्वाब सा जगता रहा
          नन्हा सा था कोई लम्हा
पाँव पाँव चलता रहा
      तपती रही धुप ज़िंदगी की
          छाँव सपनो की मरहम लगाती रही
                    अब नींद अधूरी है और ख्वाब -
आतिशों से;चमक कर बुझ चुके है.
          आँख खोलने से डरते हैं
          दुनियावी हकीकत में  ;
      समझ में सब कुछ आता है
     मगर फिर भी नहीं आता
   जीना चाहते हैं हम ;
मगर फिर भी जिया नहीं जाता

सोमवार, 17 अगस्त 2015

सन्नाटा

गगन पे लटका घनघोर कुहासा ,
अंधेरों में मुंह छुपाये बैठा है सूरज
रोशनी होगी मगर कब -क्या मालूम --!
आगत की कोई आहटनहीं. सन्नाटा सा पसरा है 
आने वाला कहीं, कोई तूफ़ान तो नहीं 
मन के मरुस्थल में उगते नागफनी से कांटे
छेद डालते हैं अन्तःस्थल का रेशमी आवरण
प्रश्नो के सैलाब है, जवाब कोई नहीं --
अँधेरा है चहुँ ओर-रोशनी कोई नहीं --
उजालों की आहट पे कान लगे हैं
दूर कहीं इक खटका सा हुआ है
चमक कर बुझ गया है सय्यारा कहीं
लगता है -सुबहा होने में बड़ी देर है अभी
कोलाहल है बहुत मन में ;
आवाज़ें ही आवाज़ें हैं --
इनमें ,अपनी ही आवाज़ गुम हो  गयी है शायद ;
बोलना चाहूँ तो शब्द खो जाते हैं -
सोचूँ तो ख़यालात कहाँ चले जाते हैं :
निविड़तम इस अँधेरे में;
 शोर के इस जंगल में ;
मन के इस सन्नाटे में ;
रिश्तों के इस मकड़जाले में ;
उलझी सी है इक लहर -
रिस रही है किसी नासूर की तरह
बूँद बूँद कर टपकती -रातों में ; ओस की तरह -
ख़त्म हो ही जायेगी  इक ज़िंदगी 
उजालों का मुंह देखे बगैर 

गुरुवार, 16 जुलाई 2015

–बस चले आना !

तुम चल दिए मुंह मोड़ कर
इक अनकहे से सफर पे दूर कहीं
जाते हो पर नही जाते दूर कहीं
इक मुकाम तुम्हारा है
 इस दिल में इन आँखों में-
जब चाहो चले आना
घर तुम्हारा है चले आना बेहिस
बे झिझक बे तकल्लुफ –
–बस चले आना !

दास्ताँ--ए-उल्फत

तुम चल दिए मुंह मोड़ कर
इक अनकहे से सफर पे दूर कहीं
जाते हो पर नही जाते दूर कहीं
इक मुकाम तुम्हारा है इस दिल में इन आँखों में
जब चाहो चले आना
घर तुम्हारा है चले आना बेहिस
बे झिझक बे तकल्लुफ –
–बस चले आना
क्या सुनायें किसी को
 दास्ताँ--ए-उल्फत
जो समझना है मुश्किल
दिल -ए- मुस्तर को
क्या खो दिया क्या पा लिया
क्या खो के पाया
क्या पा के खो दिया
कुछ ख्वाहिशों का मुकाम था
कुछ सफर थे अधूरे सपनो के
कुछ लम्हे जी रहे थे कब से
इन आँखों  में
पा लिया
कुछ खत अधूरे  लिक्खे रखे थे
पुर्जा पुर्जा बिखर गए
कुछ जागी जागी रातों की सियाही
मेरी ज़िंदगी में उतर गयी
इक खलिश तब भी थी
इक खलिश अब भी है
क्या करून –क्या कहूँ !

सोमवार, 13 जुलाई 2015

आवाज़ न दो -



अश्क आँखों से बहा कर दुपट्टे में सुखाया होगा
वक़्त कि चादर में लपेटे हुए वो एहसास
सूखी हुई वो स्याही दुपट्टे कि वो नमी
मचल के बाहर आने को यूं बेताब क्यूँ है
तेरा नाम 
हजारों बार
 हाथों पे लिख -लिख के मिटाया होगा
अश्क आँखों से
 बहा कर दुपट्टे में सुखाया होगा
वक़्त की  चादर में
 लपेटे हुए वो एहसास
सूखी हुई वो सियाही
 दुपट्टे की वो नमी
मचल के बाहर आने को
 यूं बेताब क्यूँ है ?

रविवार, 12 जुलाई 2015

उमस

कुछ सुबहों कि शाम नहीं होती
सिर्फ इंतज़ार होता है
लम्हों में बीतते जाते हैं साल
 बरसों में बरसती शामें
 गीली गीली सी आँखें
 भीगा भीगा सा मन
बारिश कि फुहारें हैं
बरसती कहाँ हैं
उमस सी है मन में
आंखों पे छाई कोई बदली सी है

जाने कब से --

मैं तो सिर्फ मैं हूँ ---
और बहती इक नदी के तीर पर
खड़ा हूँ -इंतज़ार में ---!
वक़्त किताबों के पन्ने पलट जाता है
हौले से
 कोई आवाज़ नहीं आती कोई शोर नहीं थमता
कोई हलचल नहीं होती --

कोई आता भी नहीं
कभी --

 बेनूर ज़िंदगी की उदास शामों में
चले आते हो तुम --
कभी --!
बंद पन्नो में छुपे गुलाबों की तरह
न कहे गये कभी 

उन चंदअल्फ़ाज़ों की तरह
डूबती रूह की बची हुई चंद साँसों की तरह-
---इसलिए आज भी --
आधे अँधेरे आधे उजाले में खड़ा हूँ मैं
रौशनी के कुछ वर्क लपेटे हुए
तुम आओगे इसी राह से
इसलिए- खड़ा हूँ मैं

 वक़्त की बहती नदी के किनारे 
 जाने कब से --जाने कब तक

शनिवार, 11 जुलाई 2015

बारिशों में महकता बचपन

कच्ची धान की बालों की मीठी सी महक ,
पहली फुहारों में माटी की सोंधी सी गमक ,
भीगते मौसम में खुमारी की हलकी सी खुनक ,
सब याद आता है जब तेरी याद आती है ;
        अधमुंदी आँखों के वो प्यारे सपने
      रात पत्तों पे पड़ती वो ओस की बूँदें
      तुम भी तो खो गए थे इनकी तरह
      ढूँढा कितना था ;मेरे बचपन -----
----------------------------------तुम कहाँ हो --?

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

अनजाने ---पहचाने



कभी यूँ नहीं लगता मिल कर किसी से -?
कि जानते हैं हम आपको न जाने कितने बरसों से
कुछ अनजान अनचीन्हे से चेहरे कभी बन जाते हैं
कितने अपने --किस तरह से ?
झूठ हो जाते हैं हर फलसफे
जात, धर्म, रंग ,भेष, भाषा ,देश और प्रदेश के
मिल जाते हैं दिल, तो आड़े आते नहीं झगडे
बोली, जुबां और किसी मतभेद के ;
कितना अच्छा सा लगता है जब मिल जाते हैं
चंद जिंदा दिल इक जगह
खिल जाती है, महक जाती है मानो
बगिया गुलो गुलिस्तान की तरह
मिल के महक जाता है मन- छोड़ दुनिया के तंज़
चलो बनाएं इक तहजीब होलीकी तरह
जहाँ न हो कोई गम
और घुल जाएँ सभी रंग बारिशों में
खुशियों की धुप में छा जाए एक इंद्र धनुष

बुधवार, 8 जुलाई 2015

निश्शब्द

                                  कुछ जाते कदमों की आहट आ रही है
और मैं निश्शब्द हूँ ;
स्पन्दन्हीन, प्रस्तर मूर्ति -
क्यूँ नहीं आवाज़ देती
हाथ बढ़ा कर रोक लेती ;क्यों नहीं
शायद कहीं भयभीत हूँ मैं खुद से भी
कितने बंधन में बंधी मैं
विवश अपने आप से
उलझनें दर उलझनें हैं
साथ तेरी याद के
भूल जाना चाहती हूँ/थी
न तब हुआ ना अब हुआ
नजदीकियां संभव नहीं
तो जाने दूं तुम्हें  --
आज़ाद कर दूं -कल की बेड़ियों से मैं---!
और अपनी गांठों में बढ़ा लूं
एक और गिरह
कांपती ,थरथराती,
 डरती हुई ;हिलती हुई
दूर जाते तुम 
तुम्हारी हर चाप से जुड़ती हुई

मंगलवार, 7 जुलाई 2015

ताउम्र----


ताउम्र दो ज़िंदगियों को जीते रहे हम
 एक तेरे साथ इक तेरे बगैर
कुछ सपनो में थी कुछ खयालो में
 कुछ गुजरे वक़्त में थी कुछ कल की यादों में
 जो तेरे साथ थी वो याद रही
और तेरे बगैर थी जो उसको हम तो भूल गए
 तेरी यादों का सफ़र अब भी जारी है
तेरी बातों का सफ़र अब भी जारी है
हक़ीक़त में अब जिया नहीं जाता
 और सपनो कासफर अब भी जारी है
 न तुझको पा ही सके
 न तुझको छोड़ के  जी भी सके
 उम्र सारी अपनी इन उलझनो में निकाल दी हमने

सोमवार, 6 जुलाई 2015

तेरा होना--

अहसास की लम्बी उँगलियों से ,वक़्त की उन अंधी गलियों से गुजर के
तेरे चेहरे  को जब मैं छूती हूँ ,तेरे होने को महसूस करती हूँ
यादों के आईने से गुजर कर, कांपते होठो ,बढती हुई साँसों और भीगी हुई सी पलकों से
तुझको चूम लेती हूँ और तेरे होने को महसूस करती हूँ
खामोश उस पल को सीने में दफ़न कर , उन बंद गलियों के मुहाने पे जा कर
तुझको अलविदा सा कह कर, भारी कदमों से वापस जब मैं होती हूँ —-
————————————तेरे होने को महसूस करती हूँ
अहसास की लम्बी उँगलियों से ,
वक़्त की उन अंधी गलियों से गुजर के
तेरे चेहरे  को जब मैं छूती हूँ 
,तेरे होने को महसूस करती हूँ ll

यादों के आईने से गुजर कर,
 कांपते होठो ,बढती हुई साँसों 
और भीगी हुई सी पलकों से
तुझको चूम लेती हूँ ;और,
 तेरे होने को महसूस करती हूँ ll

खामोश उस पल को 
सीने में दफ़न कर , 
उन बंद गलियों के मुहाने पे जा कर,
तुझको अलविदा सा कह कर,
 भारी कदमों से;
 वापस जब मैं होती हूँ —
——तेरे होने को महसूस करती हूँ ll

रविवार, 5 जुलाई 2015

--और एक रौशन कोना


 तुम तो वो चाँद नहीं मेरे कि

दिखा के फख्र से कह सकूं सबको
कि देखो ;–
सबसे पहले इसको मैंने ढूँढा था
तुम तो हो ,मेरी रातों का रोशन, वो दिया;
जो टिमटिमाता है मेरे मन के कोने में
जला के रखा है जिसे बरसों से मगर
डरती रहती हूँ फिर भी-
कि साँसों की हलकी सी छुअन से ,
हलकी हवा के झोंके से, बुझ न जाए कहीं
बंद कर रखा है हर खिड़की को हर सांकल को
मूँद रखा है हर कपाट, हर झरोखे को ,
कही झांक न ले कोई ,मेरे मन के आँगन का
वो टिमटिमाता दिया और वो रोशन कोना -

शनिवार, 4 जुलाई 2015

आज़ाद नहीं --


आज भी आज़ाद नहीं मैं
दुआओं से ख्यालों से सपनों से
उनींदी आँखों में
नींद अब भी नहीं आती . .
बसेरा है कुछ यादों
कुछ ख्यालों का
आज़ाद नहीं अब भी मैं कुछ ख्यालों से
रिश्ते सब ख़त्म हुए
बातों और नज़ारों के
अब भी रास्तों में नज़रें
बिछी सी रहती हैं
यूँ ही बेमानी सी हरकतें
ये बचकानापन …….
यूँ ही बंद किवाड़ों की ओट से
कभी सांकलें खोल के
कभी नज़र बचा के
कभी नज़र चुरा के
गलियों में झाँक लेना
कहीं कोई खड़ा तो नही
इंतज़ार में
कोई आया तो नहीं
कोई ख्वाब कहीं
मेरा मुंतज़िर तो  नहीं
अब भी आज़ाद नहीं मैं रिश्तों से
तुम से खुद से ….
चाहा तो बहुत था
सोचा भी बहुत था
कि- तोडना क्या मुश्किल है ?
खोलना क्या मुश्किल है ?
बंधनो को ,जो जुड़े ही नहीं
जो बंधे ही नहीं
जो बने ही नहीं
पर   आज़ाद  नहीं आज भी
मैं इन बंधनो से
तुम न हो तो क्या
आज भी मैं मुंतज़िर हूँ
तुम्हारे लिए
आज भी मेरे ख़्वाबों में
तेरी परछाईं है
सपने हैं कुछ टूटे टूटे से
और हकीकतों की तेज रौशनी में
आँखें चुंधिया सी जाती हैं
पलक झपती नहीं
जानते हो न -तेज रौशनी में
नींद मुझे आती नहीं
आँखें गड़ती हैं
कड़ुआती हैं
पनियाती हैं
धुंवा कसैला सा
एक दम घोंटू अँधेरा  सा
घेर लेता है चारों तरफ
घबरा के छुप जाऊं कहाँ
कोई पनाह तो नहीं
आज भी आज़ाद नहीं
मैं उन सपनो से
इन हक़ीक़तों से …..
होना चाहती तो हूँ
सोना चाहती तो हूँ …

बुधवार, 1 जुलाई 2015

एक साल
   
                                                                  एक साल --हर लम्हा,
                                                                          कितना तनहा
                                                                                     तेरे बिना ---
                                          एक आँगन, छत बिना
                                       गलियारा इक, बिना रौशनी,
                                  बिखरते पल हैं राहें में
                                             ले के आँखों की नमी

                                                                  एक शाम उदास सी
                                                               कब साथ तेरे  गुजर गई
                                                             सारी जि़नदगी का तप्सरा
                                                                   बस आखिरी वो साँझ थी

                                          अब एक साल तेरे बिना
                                            अब एक उम्रतेरे बिना
                                          हर लम्हा कितना तनहा 
तेरे बिना-----

मंगलवार, 30 जून 2015


                                                 

हसरतें



                                                 छुआ नही तुझे कभी पर छूने को दिल करता है
                                  गले कभी लग के तेरे रोने को दिल करता है
                                                         भूल जाना बातें मेरी यूं ही सुन के तू आज
                                        क्या कहूँ  कि आजकल हर बात  पे
                                                     कभी हंसने तो कभी रोने को दिल करता है

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

A no one’s Valentine is what, I am
once loved  and once was loved ;
never again ;never again !
so long a path;  without love –!
a search for love, never ended
till now. till eternity ;till the last breath .
loved people ,loved creatures, loved suffering humanity ;
they loved, they cared, they honoured ;
but  The Love, The Passion ,
the true essence, was missing ;
still missing ;
the hollow is inside, the black crater,
sucking the life, throughout the life ;
and still alive, I am -without love-
a no one’s  valentine!

कुछ लिहाफ यादों के


कुछ फूल सजा रखे हैं 
सूख गए हैं 
पर महक अब भी बाकी है 
कुछ ख़त बिना नाम के
 लिखे रखे हैं 
कुछ साल 
चादर की तरहा 
बिछा रखे हैं 
कुछ लिहाफ यादों के 
अब भी पुरसुकून हैं 
एक फूल याद है–?
 जो तुमने कभी भेजा था ?--
एक गुलदस्ता--?
  भिजवाया था मेरे पते पर
अब भी सजा रखा है
 यूँ ही –
फूल कभी बासी नहीं होते ना
उनकी महक
 यादों में बसती है-- शायद

Na Jaane Kyun Hota Hai Ye Zindagi Ke Saath