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यादों की चिड़िया

अब मिलना नही होता तुझसे कभी पर , तेरे ख़त अब भी मिल जाते हैं , बिखरे हुए दानों की तरह मुझे यूँ ही  कभी कभी,  झांकते हुए से   कभी इस पल्ले से ...

शनिवार, 21 नवंबर 2015

उन्हें सुनाने को-

कही  खाली सफे पे इक  अधूरी सी इबारत
 लिख के छोड़ दी थी कभी
आज भी कुछ अनलिखे हरफों की सियाही
 मेरी नीदो को सोख लेती हैं

उस सूखी सियाहीकी नमी कहीं
अंदर जज़्बातों में घुली है शायद
दाग पानी के छूट जाते हैं
सियाही यादों की  मिटती ही नहीं

सरहाने  तकिये पे निशाँ कुछ दागो  के है
रात फिर तुम मुझे याद बहुत आये थे
रात फिर उमड़े थे ज़ज़्बात कुछ रवानी से
रात फिर कोरों पे टूटे सितारे से झिलमिलाये थे 

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