एक तस्वीर देखी थी उस रोज किसी किताब में निकली थी
कुछ पहचानी सी दिखती थी
कुछ अपने गाँव घर सी दिखती थी
कुछ पहचानी सी दिखती थी
कुछ अपने गाँव घर सी दिखती थी
हाँ ; वो दीवाल पर लगी खूँटी से
लग रहा था ; और शायद ;
फर्श के पत्थरों ने भी कुछ बताया था
मुझे पहचान के कुछ तो हंस दिए थे
मेरी नादानी पे कुछ कुछ ने मुंह बनाया था फर्श के पत्थरों ने भी कुछ बताया था
मुझे पहचान के कुछ तो हंस दिए थे
बचपन गुजारा था इसी आँगन में
अब यादें भी बदगुमां हो गयीं
कितना नाशुक्रा है आदमी
ये इशारे में हमसे कह गयीं
वो गाँव ,वो घर ,वो आँगन ,
कितने बेगाने हो गए
रहते अब भी हैं लोग वहाँ पर
कितने हम अजनबी से हो गए
कभी यादों की डोर थाम कर
जो कभी पर्दा सा उठाते हैं
वो आम की डालियाँ और
शादियों के गीत याद आते हैं
वो आँगन के खटोलों में
सारी सारी रात की सुगबुगाहटें
और पौ फटते ही
वो चाय की अलामतें
बर्तनो की लुक छिपी वो
वो कमरे -कमरे की तलाशियां
वो खिड़की ,ए -बखरी ,ओ- बखरी की दौड़
कुछ भी तो नहीं भूला
; वो गांव वो घर वो बचपन
बस हम ही अजनबी से हो गए
वो जिनसे रोज झगड़ लेते थे
आज भी मिल जाते हैं कभी चौराहे पर
चेहरे पे मुस्कान सजाये हुए
मगर कितनी बेगानी सी मुस्कान
है ये ,उन कुश्तियों के सामने

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