मैं तो सिर्फ मैं हूँ ---
और बहती इक नदी के तीर पर
खड़ा हूँ -इंतज़ार में ---!
वक़्त किताबों के पन्ने पलट जाता है
हौले से
कोई आवाज़ नहीं आती कोई शोर नहीं थमता
कोई हलचल नहीं होती --
कोई आता भी नहीं
कभी --
बेनूर ज़िंदगी की उदास शामों में
चले आते हो तुम --
कभी --!
बंद पन्नो में छुपे गुलाबों की तरह
न कहे गये कभी
उन चंदअल्फ़ाज़ों की तरह
डूबती रूह की बची हुई चंद साँसों की तरह-
---इसलिए आज भी --
आधे अँधेरे आधे उजाले में खड़ा हूँ मैं
रौशनी के कुछ वर्क लपेटे हुए
तुम आओगे इसी राह से
इसलिए- खड़ा हूँ मैं
वक़्त की बहती नदी के किनारे
जाने कब से --जाने कब तक
और बहती इक नदी के तीर पर
खड़ा हूँ -इंतज़ार में ---!
वक़्त किताबों के पन्ने पलट जाता है
हौले से
कोई आवाज़ नहीं आती कोई शोर नहीं थमता
कोई हलचल नहीं होती --
कोई आता भी नहीं
कभी --
बेनूर ज़िंदगी की उदास शामों में
चले आते हो तुम --
कभी --!
बंद पन्नो में छुपे गुलाबों की तरह
न कहे गये कभी
उन चंदअल्फ़ाज़ों की तरह
डूबती रूह की बची हुई चंद साँसों की तरह-
---इसलिए आज भी --
आधे अँधेरे आधे उजाले में खड़ा हूँ मैं
रौशनी के कुछ वर्क लपेटे हुए
तुम आओगे इसी राह से
इसलिए- खड़ा हूँ मैं
वक़्त की बहती नदी के किनारे
जाने कब से --जाने कब तक

2 टिप्पणियां:
बहुत अच्छा लिखा है। बधाई हो।
thanks Satish ji
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