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यादों की चिड़िया

अब मिलना नही होता तुझसे कभी पर , तेरे ख़त अब भी मिल जाते हैं , बिखरे हुए दानों की तरह मुझे यूँ ही  कभी कभी,  झांकते हुए से   कभी इस पल्ले से ...

गुरुवार, 16 जुलाई 2015

दास्ताँ--ए-उल्फत

तुम चल दिए मुंह मोड़ कर
इक अनकहे से सफर पे दूर कहीं
जाते हो पर नही जाते दूर कहीं
इक मुकाम तुम्हारा है इस दिल में इन आँखों में
जब चाहो चले आना
घर तुम्हारा है चले आना बेहिस
बे झिझक बे तकल्लुफ –
–बस चले आना
क्या सुनायें किसी को
 दास्ताँ--ए-उल्फत
जो समझना है मुश्किल
दिल -ए- मुस्तर को
क्या खो दिया क्या पा लिया
क्या खो के पाया
क्या पा के खो दिया
कुछ ख्वाहिशों का मुकाम था
कुछ सफर थे अधूरे सपनो के
कुछ लम्हे जी रहे थे कब से
इन आँखों  में
पा लिया
कुछ खत अधूरे  लिक्खे रखे थे
पुर्जा पुर्जा बिखर गए
कुछ जागी जागी रातों की सियाही
मेरी ज़िंदगी में उतर गयी
इक खलिश तब भी थी
इक खलिश अब भी है
क्या करून –क्या कहूँ !

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