कुछ जाते कदमों की आहट आ रही है
और मैं निश्शब्द हूँ ;
स्पन्दन्हीन, प्रस्तर मूर्ति -
क्यूँ नहीं आवाज़ देती
हाथ बढ़ा कर रोक लेती ;क्यों नहीं
शायद कहीं भयभीत हूँ मैं खुद से भी
कितने बंधन में बंधी मैं
विवश अपने आप से
उलझनें दर उलझनें हैं
साथ तेरी याद के
भूल जाना चाहती हूँ/थी
न तब हुआ ना अब हुआ
नजदीकियां संभव नहीं
तो जाने दूं तुम्हें --
आज़ाद कर दूं -कल की बेड़ियों से मैं---!
और अपनी गांठों में बढ़ा लूं
एक और गिरह
कांपती ,थरथराती,
डरती हुई ;हिलती हुई
दूर जाते तुम
तुम्हारी हर चाप से जुड़ती हुई
और मैं निश्शब्द हूँ ;
स्पन्दन्हीन, प्रस्तर मूर्ति -
क्यूँ नहीं आवाज़ देती
हाथ बढ़ा कर रोक लेती ;क्यों नहीं
शायद कहीं भयभीत हूँ मैं खुद से भी
कितने बंधन में बंधी मैं
विवश अपने आप से
उलझनें दर उलझनें हैं
साथ तेरी याद के
भूल जाना चाहती हूँ/थी
न तब हुआ ना अब हुआ
नजदीकियां संभव नहीं
तो जाने दूं तुम्हें --
आज़ाद कर दूं -कल की बेड़ियों से मैं---!
और अपनी गांठों में बढ़ा लूं
एक और गिरह
कांपती ,थरथराती,
डरती हुई ;हिलती हुई
दूर जाते तुम
तुम्हारी हर चाप से जुड़ती हुई

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