गगन पे लटका घनघोर कुहासा ,
अंधेरों में मुंह छुपाये बैठा है सूरज
रोशनी होगी मगर कब -क्या मालूम --!
छेद डालते हैं अन्तःस्थल का रेशमी आवरण
दूर कहीं इक खटका सा हुआ है
चमक कर बुझ गया है सय्यारा कहीं
लगता है -सुबहा होने में बड़ी देर है अभी
सोचूँ तो ख़यालात कहाँ चले जाते हैं :
निविड़तम इस अँधेरे में;
रिस रही है किसी नासूर की तरह
बूँद बूँद कर टपकती -रातों में ; ओस की तरह -
अंधेरों में मुंह छुपाये बैठा है सूरज
रोशनी होगी मगर कब -क्या मालूम --!
आगत की कोई आहटनहीं. सन्नाटा सा पसरा है
आने वाला कहीं, कोई तूफ़ान तो नहीं
मन के मरुस्थल में उगते नागफनी से कांटेछेद डालते हैं अन्तःस्थल का रेशमी आवरण
प्रश्नो के सैलाब है, जवाब कोई नहीं --
अँधेरा है चहुँ ओर-रोशनी कोई नहीं --
उजालों की आहट पे कान लगे हैंदूर कहीं इक खटका सा हुआ है
चमक कर बुझ गया है सय्यारा कहीं
लगता है -सुबहा होने में बड़ी देर है अभी
कोलाहल है बहुत मन में ;
आवाज़ें ही आवाज़ें हैं --
इनमें ,अपनी ही आवाज़ गुम हो गयी है शायद ;
बोलना चाहूँ तो शब्द खो जाते हैं -सोचूँ तो ख़यालात कहाँ चले जाते हैं :
निविड़तम इस अँधेरे में;
शोर के इस जंगल में ;
मन के इस सन्नाटे में ;
रिश्तों के इस मकड़जाले में ;
उलझी सी है इक लहर -रिस रही है किसी नासूर की तरह
बूँद बूँद कर टपकती -रातों में ; ओस की तरह -
ख़त्म हो ही जायेगी इक ज़िंदगी
उजालों का मुंह देखे बगैर

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