अब मिलना नही होता तुझसे कभी पर ,
तेरे ख़त अब भी मिल जाते हैं ,
बिखरे हुए दानों की तरह
मुझे यूँ ही
कभी कभी,
झांकते हुए से
कभी इस पल्ले से ,कभी उस झरोखे से,
कभी बंद तालों में ,
कभी ऊंची ढकी बरसातियों में ,
कभी बरसों से खुली नही,
उन किताबों में;
कुछ के जवाब कभी गए नही
पर ज़ुबाँ की नोक पर रखे हुए हैं ;
आज भी,
कुछ लम्हों को याद करते आज भी जी मसोसता है
कुछ छुपी खिलखिलाहटें ,
सरगोशियां सुनाई देती हैं
कुछ बंद दरवाज़ों के पल्ले उघाड़ देती हैं
तेरी चिट्ठियां ;
सम्हाली नही हैं मैने ,
बिखेर रखी हैं चावल के दानों की तरह
यादों की चिड़िया आती रहेगी मेरे आंगन
किसी बहाने तो
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