भाव कोई कल्पना नही होते
कुछ अदृश्य सी तरंगे होती हैं
ढूंढती हूँ बहुत दिनों से उन्हे
जो गुम हो गये है अंतस में मेरे
कभी हिया की पीर में कभी व्यथा के संग
कभी खामोशी के दर्पण में
कभी शब्दों के व्यवहार में
कुछ ख्वाब हैं अधूरे कुछ रिश्ते रूठे हुए
खुशियां बिखरी हैं कुछ
चाहतें भी कुछ हैं अपूर्ण
मन करता कभी रोने का
आंखें मींज सोने का
कभी मन करता हंसने का
खिलखिला के झूमने का
जी चाहता है आज मुझको कोई दिखाई न दे
या फिर मैं भी अदृश्य सी हो जाऊं
ममता को भी किसने देखा है
बिरला ही वंचित है इससे
आगोश में जब भी लेती है तो
भर देती है मन आंगन को
अदृश्य है सूरज की गर्मी,
पर इंद्रधनुष सजता उससे
देखा किसने सुर तालों को
पर इनसे ही मधुर संगीत बने
कभी आसमान के आंसू को
ओस में ढलते देखा है
कलियों की पुलक को खिल खिल कर
छू जाए मन को वो सुकून
दिखता ही नही इन आँखों को
बस इक अदृश्य सी खुशबू ये
मैं बन जाऊं तो तर जाऊं
मैं हरसिंगार बन के श्रृंगार
कुछ तम हर लूँ अंधियारे का
कुछ वेग पवन से ऋण ले कर
फैला पाऊँ मन का प्रकाश/उजास
ज्यूँ सृष्टि रची उस ईश्वर ने
कोई माला में धागे सदृश
खुद रहा अगोचर चित्रकार
फिर भी उद्भासित वो कलाकार
उसकी रचना हूँ मैं फिर भी चाहूं कि उसके समान
कोई सृष्टि रचूँ में भी जिसमे बस जाएं बस मेरे मन प्राण
होऊं अदृश्य फिर भी मेरे निशान निष्प्राण न हों
मेरी खुशबू से मेरी दुनिया मेरे बाद सुवासित हो
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