यूं ज़िंदगी हुई बसर तनहा
के राहें तनहा और मंजिलें तनहा
काफिले बहुत थे राहों में मगर
फिर क्यूँ हुआ हर सफ़र तनहा
हमसफ़र चले थे साथ बहुत
पर हमनशीं उनमें कोई न था
जिनको खोजती रही अपनी नज़र
हमको उसका पता कोई न था
धुंध लिपटी रही आशियानों के गिर्द खुशदिली का पता कोई न था
मौसम पतझरों में बदलते रहे
उमड़ते सावन का पता कोई न था
बहारें आयीं तो वक़्त गुजर जाने के बाद
दीदार तेरा हुआ उम्र निकल जाने के बाद अब कहें किस से , किस से शिकायत करें
जब लकीरों ने लिख दिया सफ़र तनहा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें