और पूरी परत ही चटक सी जाती है
मरती है कोई एक कहीं
पर लड़कियां कितनी दरक जाती हैं
बहुत सी चिटकन दिखाई पड़ती हैं
बड़ी दूर तक कमजोर सतह हो जाती है
कोई निर्भया कोई कामिनी ही नही मरती
एक पूरी संरचना ही बिखर जाती है
टूटती है हर लड़की भीतर से कहीं
रूह अंदर तक कांप जाती है
नींद फिर मातापिता को कितने
हर व्यवस्था पर सवाल उठते हैं
हर लड़की पर सवाल उठते हैं
हर भाई पर सवाल उठते हैं
हर दोस्त पे सवाल उठते हैं
दरक जाती है हर भरोसे हर रिश्ते की नींव
बन्धनों की लगाम कसती है
हर बार इस मकड़जाल में फिर फिर
शिकार लड़की ही फंसती है
हर स्वतंत्रता पे आंच आती है
हर कपड़े पे हर अंदाज़ पे तंज होते हैं
बोलने वालों में गरज ये के
मुंह औरतों के भी कम नही होते हैं
बात दीगर तो नही फिर भी है
बेटियां क्यों शिकार होती हैं
आदमी की हवस है या के बदला है
औरत क्यों न हार मान लेती है
सुनो तुम ओ दरिंदो मरेगी नही
लड़कियां यूँ हर दरिंदगी के बाद
फिर से खड़ी होगी हक़ से
हर जुल्मोसितम के बाद
वो ना रही तो फिर कोई तूफान उठेगा
न ज़ुल्म कोई न उसका नामो निशान रहेगा
बांटने की हमको तुम ये क़ोशिश छोड़ दो
वो दलित है या सवर्ण है ये औरत पे छोड़ दो
फूलों की तरह बर्फ हर रोज गिरेगी
कलियों की तरह बेटियां हर रोज खिलेंगी
जम जाएंगे ये फूल भावना के भर देंगे हर दरार
दफन जिसमे हो हो के मरेंगे वहशियत के पैरोकार
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