हम औरतों का,
खून बहा कर माता का
ठीक तुम्हारी तरह हम भी दुनिया मे आती हैं
और जितना तुम ने देखा नही इस जीवन मे
(चिकित्सक और सिपाही के सिवा),
उतना हम हर माहवारी में बहा देती हैं
और अपने लिए नही तुम्हारे लिए
(ह्न्ह..!!बेटियां मांगता भी कौन है अपवादों के सिवा)
तुम्हे जन्म देने में खून कितना बहा कुछ हिसाब नही
हिसाब रखता भी कौन है ,
चेहरा देख तुम्हारा ;
मुझे याद रखता भी कौन है?
हाँ ,तो खून बहने,बहाने से
रिश्ता नया नही हमारा
पर ये खून ..!!!
बहता हुआ जननांगों से
कटी हुई जीभ से
टूटे दांतो,कमर रीढ़ की हड्डियों से
फूटे सिर से,
दम घुटती साँसों से
बेगैरतों के अत्याचार से
उफ्फ..उफ्फ..उफ्फ..!!
बर्दाश्त नही होता न..?
सुना नही जाता न..?
जुगुप्सा हो रही है न ..?
मुझे भी हो रही है--
तुम्हारे अस्तित्व से
कीड़ों की तरह रेंगते बिलबिलाते
बस वासना की अंधी गलियों
में फिरते,प्रतिशोध की जलन से छटपटाते
या फिर किसी राजनीतिक षड्यंत्र
का ताना बाना बुनते तुम
सवर्ण दलित के खेल खेलते तुम
हर चुनाव आने से पहले ,हारने के बाद
मुद्दों से भटकाने को,
अपनी चुनावी भट्ठियों में ,
हवस की आग में,
अपनी माँ बहनों को झोंकते तुम..!
हाँ ! मुझे भी हो रही है जुगुप्सा
तुम्हारे अस्तित्व से..!!!
.
.श्श्..श्श्.श..!!!!!!खामोश
.
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क्या ये लिखने की बातें हैं ?
क्या ये पढ़ने की बातें हैं?
पर्दे में रखने की,
खुसफुसहटों में कहने की
बातें हैं ये।
सदियों से यही होता आया है,
यही होगा,यही उचित है
.
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कैसी बेशर्म बेहया हो गयी हैं
ये आजकल औरतें...।।