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यादों की चिड़िया

अब मिलना नही होता तुझसे कभी पर , तेरे ख़त अब भी मिल जाते हैं , बिखरे हुए दानों की तरह मुझे यूँ ही  कभी कभी,  झांकते हुए से   कभी इस पल्ले से ...

गुरुवार, 16 जुलाई 2015

–बस चले आना !

तुम चल दिए मुंह मोड़ कर
इक अनकहे से सफर पे दूर कहीं
जाते हो पर नही जाते दूर कहीं
इक मुकाम तुम्हारा है
 इस दिल में इन आँखों में-
जब चाहो चले आना
घर तुम्हारा है चले आना बेहिस
बे झिझक बे तकल्लुफ –
–बस चले आना !

दास्ताँ--ए-उल्फत

तुम चल दिए मुंह मोड़ कर
इक अनकहे से सफर पे दूर कहीं
जाते हो पर नही जाते दूर कहीं
इक मुकाम तुम्हारा है इस दिल में इन आँखों में
जब चाहो चले आना
घर तुम्हारा है चले आना बेहिस
बे झिझक बे तकल्लुफ –
–बस चले आना
क्या सुनायें किसी को
 दास्ताँ--ए-उल्फत
जो समझना है मुश्किल
दिल -ए- मुस्तर को
क्या खो दिया क्या पा लिया
क्या खो के पाया
क्या पा के खो दिया
कुछ ख्वाहिशों का मुकाम था
कुछ सफर थे अधूरे सपनो के
कुछ लम्हे जी रहे थे कब से
इन आँखों  में
पा लिया
कुछ खत अधूरे  लिक्खे रखे थे
पुर्जा पुर्जा बिखर गए
कुछ जागी जागी रातों की सियाही
मेरी ज़िंदगी में उतर गयी
इक खलिश तब भी थी
इक खलिश अब भी है
क्या करून –क्या कहूँ !

सोमवार, 13 जुलाई 2015

आवाज़ न दो -



अश्क आँखों से बहा कर दुपट्टे में सुखाया होगा
वक़्त कि चादर में लपेटे हुए वो एहसास
सूखी हुई वो स्याही दुपट्टे कि वो नमी
मचल के बाहर आने को यूं बेताब क्यूँ है
तेरा नाम 
हजारों बार
 हाथों पे लिख -लिख के मिटाया होगा
अश्क आँखों से
 बहा कर दुपट्टे में सुखाया होगा
वक़्त की  चादर में
 लपेटे हुए वो एहसास
सूखी हुई वो सियाही
 दुपट्टे की वो नमी
मचल के बाहर आने को
 यूं बेताब क्यूँ है ?

रविवार, 12 जुलाई 2015

उमस

कुछ सुबहों कि शाम नहीं होती
सिर्फ इंतज़ार होता है
लम्हों में बीतते जाते हैं साल
 बरसों में बरसती शामें
 गीली गीली सी आँखें
 भीगा भीगा सा मन
बारिश कि फुहारें हैं
बरसती कहाँ हैं
उमस सी है मन में
आंखों पे छाई कोई बदली सी है

जाने कब से --

मैं तो सिर्फ मैं हूँ ---
और बहती इक नदी के तीर पर
खड़ा हूँ -इंतज़ार में ---!
वक़्त किताबों के पन्ने पलट जाता है
हौले से
 कोई आवाज़ नहीं आती कोई शोर नहीं थमता
कोई हलचल नहीं होती --

कोई आता भी नहीं
कभी --

 बेनूर ज़िंदगी की उदास शामों में
चले आते हो तुम --
कभी --!
बंद पन्नो में छुपे गुलाबों की तरह
न कहे गये कभी 

उन चंदअल्फ़ाज़ों की तरह
डूबती रूह की बची हुई चंद साँसों की तरह-
---इसलिए आज भी --
आधे अँधेरे आधे उजाले में खड़ा हूँ मैं
रौशनी के कुछ वर्क लपेटे हुए
तुम आओगे इसी राह से
इसलिए- खड़ा हूँ मैं

 वक़्त की बहती नदी के किनारे 
 जाने कब से --जाने कब तक

शनिवार, 11 जुलाई 2015

बारिशों में महकता बचपन

कच्ची धान की बालों की मीठी सी महक ,
पहली फुहारों में माटी की सोंधी सी गमक ,
भीगते मौसम में खुमारी की हलकी सी खुनक ,
सब याद आता है जब तेरी याद आती है ;
        अधमुंदी आँखों के वो प्यारे सपने
      रात पत्तों पे पड़ती वो ओस की बूँदें
      तुम भी तो खो गए थे इनकी तरह
      ढूँढा कितना था ;मेरे बचपन -----
----------------------------------तुम कहाँ हो --?

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

अनजाने ---पहचाने



कभी यूँ नहीं लगता मिल कर किसी से -?
कि जानते हैं हम आपको न जाने कितने बरसों से
कुछ अनजान अनचीन्हे से चेहरे कभी बन जाते हैं
कितने अपने --किस तरह से ?
झूठ हो जाते हैं हर फलसफे
जात, धर्म, रंग ,भेष, भाषा ,देश और प्रदेश के
मिल जाते हैं दिल, तो आड़े आते नहीं झगडे
बोली, जुबां और किसी मतभेद के ;
कितना अच्छा सा लगता है जब मिल जाते हैं
चंद जिंदा दिल इक जगह
खिल जाती है, महक जाती है मानो
बगिया गुलो गुलिस्तान की तरह
मिल के महक जाता है मन- छोड़ दुनिया के तंज़
चलो बनाएं इक तहजीब होलीकी तरह
जहाँ न हो कोई गम
और घुल जाएँ सभी रंग बारिशों में
खुशियों की धुप में छा जाए एक इंद्र धनुष

बुधवार, 8 जुलाई 2015

निश्शब्द

                                  कुछ जाते कदमों की आहट आ रही है
और मैं निश्शब्द हूँ ;
स्पन्दन्हीन, प्रस्तर मूर्ति -
क्यूँ नहीं आवाज़ देती
हाथ बढ़ा कर रोक लेती ;क्यों नहीं
शायद कहीं भयभीत हूँ मैं खुद से भी
कितने बंधन में बंधी मैं
विवश अपने आप से
उलझनें दर उलझनें हैं
साथ तेरी याद के
भूल जाना चाहती हूँ/थी
न तब हुआ ना अब हुआ
नजदीकियां संभव नहीं
तो जाने दूं तुम्हें  --
आज़ाद कर दूं -कल की बेड़ियों से मैं---!
और अपनी गांठों में बढ़ा लूं
एक और गिरह
कांपती ,थरथराती,
 डरती हुई ;हिलती हुई
दूर जाते तुम 
तुम्हारी हर चाप से जुड़ती हुई

मंगलवार, 7 जुलाई 2015

ताउम्र----


ताउम्र दो ज़िंदगियों को जीते रहे हम
 एक तेरे साथ इक तेरे बगैर
कुछ सपनो में थी कुछ खयालो में
 कुछ गुजरे वक़्त में थी कुछ कल की यादों में
 जो तेरे साथ थी वो याद रही
और तेरे बगैर थी जो उसको हम तो भूल गए
 तेरी यादों का सफ़र अब भी जारी है
तेरी बातों का सफ़र अब भी जारी है
हक़ीक़त में अब जिया नहीं जाता
 और सपनो कासफर अब भी जारी है
 न तुझको पा ही सके
 न तुझको छोड़ के  जी भी सके
 उम्र सारी अपनी इन उलझनो में निकाल दी हमने

सोमवार, 6 जुलाई 2015

तेरा होना--

अहसास की लम्बी उँगलियों से ,वक़्त की उन अंधी गलियों से गुजर के
तेरे चेहरे  को जब मैं छूती हूँ ,तेरे होने को महसूस करती हूँ
यादों के आईने से गुजर कर, कांपते होठो ,बढती हुई साँसों और भीगी हुई सी पलकों से
तुझको चूम लेती हूँ और तेरे होने को महसूस करती हूँ
खामोश उस पल को सीने में दफ़न कर , उन बंद गलियों के मुहाने पे जा कर
तुझको अलविदा सा कह कर, भारी कदमों से वापस जब मैं होती हूँ —-
————————————तेरे होने को महसूस करती हूँ
अहसास की लम्बी उँगलियों से ,
वक़्त की उन अंधी गलियों से गुजर के
तेरे चेहरे  को जब मैं छूती हूँ 
,तेरे होने को महसूस करती हूँ ll

यादों के आईने से गुजर कर,
 कांपते होठो ,बढती हुई साँसों 
और भीगी हुई सी पलकों से
तुझको चूम लेती हूँ ;और,
 तेरे होने को महसूस करती हूँ ll

खामोश उस पल को 
सीने में दफ़न कर , 
उन बंद गलियों के मुहाने पे जा कर,
तुझको अलविदा सा कह कर,
 भारी कदमों से;
 वापस जब मैं होती हूँ —
——तेरे होने को महसूस करती हूँ ll

रविवार, 5 जुलाई 2015

--और एक रौशन कोना


 तुम तो वो चाँद नहीं मेरे कि

दिखा के फख्र से कह सकूं सबको
कि देखो ;–
सबसे पहले इसको मैंने ढूँढा था
तुम तो हो ,मेरी रातों का रोशन, वो दिया;
जो टिमटिमाता है मेरे मन के कोने में
जला के रखा है जिसे बरसों से मगर
डरती रहती हूँ फिर भी-
कि साँसों की हलकी सी छुअन से ,
हलकी हवा के झोंके से, बुझ न जाए कहीं
बंद कर रखा है हर खिड़की को हर सांकल को
मूँद रखा है हर कपाट, हर झरोखे को ,
कही झांक न ले कोई ,मेरे मन के आँगन का
वो टिमटिमाता दिया और वो रोशन कोना -

शनिवार, 4 जुलाई 2015

आज़ाद नहीं --


आज भी आज़ाद नहीं मैं
दुआओं से ख्यालों से सपनों से
उनींदी आँखों में
नींद अब भी नहीं आती . .
बसेरा है कुछ यादों
कुछ ख्यालों का
आज़ाद नहीं अब भी मैं कुछ ख्यालों से
रिश्ते सब ख़त्म हुए
बातों और नज़ारों के
अब भी रास्तों में नज़रें
बिछी सी रहती हैं
यूँ ही बेमानी सी हरकतें
ये बचकानापन …….
यूँ ही बंद किवाड़ों की ओट से
कभी सांकलें खोल के
कभी नज़र बचा के
कभी नज़र चुरा के
गलियों में झाँक लेना
कहीं कोई खड़ा तो नही
इंतज़ार में
कोई आया तो नहीं
कोई ख्वाब कहीं
मेरा मुंतज़िर तो  नहीं
अब भी आज़ाद नहीं मैं रिश्तों से
तुम से खुद से ….
चाहा तो बहुत था
सोचा भी बहुत था
कि- तोडना क्या मुश्किल है ?
खोलना क्या मुश्किल है ?
बंधनो को ,जो जुड़े ही नहीं
जो बंधे ही नहीं
जो बने ही नहीं
पर   आज़ाद  नहीं आज भी
मैं इन बंधनो से
तुम न हो तो क्या
आज भी मैं मुंतज़िर हूँ
तुम्हारे लिए
आज भी मेरे ख़्वाबों में
तेरी परछाईं है
सपने हैं कुछ टूटे टूटे से
और हकीकतों की तेज रौशनी में
आँखें चुंधिया सी जाती हैं
पलक झपती नहीं
जानते हो न -तेज रौशनी में
नींद मुझे आती नहीं
आँखें गड़ती हैं
कड़ुआती हैं
पनियाती हैं
धुंवा कसैला सा
एक दम घोंटू अँधेरा  सा
घेर लेता है चारों तरफ
घबरा के छुप जाऊं कहाँ
कोई पनाह तो नहीं
आज भी आज़ाद नहीं
मैं उन सपनो से
इन हक़ीक़तों से …..
होना चाहती तो हूँ
सोना चाहती तो हूँ …

बुधवार, 1 जुलाई 2015

एक साल
   
                                                                  एक साल --हर लम्हा,
                                                                          कितना तनहा
                                                                                     तेरे बिना ---
                                          एक आँगन, छत बिना
                                       गलियारा इक, बिना रौशनी,
                                  बिखरते पल हैं राहें में
                                             ले के आँखों की नमी

                                                                  एक शाम उदास सी
                                                               कब साथ तेरे  गुजर गई
                                                             सारी जि़नदगी का तप्सरा
                                                                   बस आखिरी वो साँझ थी

                                          अब एक साल तेरे बिना
                                            अब एक उम्रतेरे बिना
                                          हर लम्हा कितना तनहा 
तेरे बिना-----