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यादों की चिड़िया

अब मिलना नही होता तुझसे कभी पर , तेरे ख़त अब भी मिल जाते हैं , बिखरे हुए दानों की तरह मुझे यूँ ही  कभी कभी,  झांकते हुए से   कभी इस पल्ले से ...

शनिवार, 31 अक्टूबर 2015

--आज तू कहाँ है ?


वो काशी की अस्सी
वो अस्सी के घाट
वो घाटों की सीढ़ी
 वो सीढ़ी से सट के बहती
 नदिया की लहरें -
आज भी;
 ढूंढती हैं ,पहचानती है मुझको ;
तेरे ही नाम से ,
सूंघती हैं स्नेह से माथ मेरा
 और पूछती हैं ;बिटिया
अब तेरी माँ कहाँ है --?



क्या बताऊँ मैं उनको
 कि क्या समझाऊँ -तू कहाँ है ?
कभी यूँ ही रातों में
चिहुंक कर -
जग जाती हूँ जब भी
 दुनिया की उलझन से
 थक जाती हूँ जब भी ;
उलझ जाऊं कहीं
या डर जाती हूँ जब भी
हौले से ;
महसूस करती हूँ तुझको
 अंदर किसी कोने में
 और पूछती हूँ खुद से
तू कहाँ है माँ --?
आज तू याद आती है बहुत
 धीरे से कानो में कह जा माँ --
--आज तू कहाँ है ?



सोमवार, 26 अक्टूबर 2015

प्रतिरूप--

बेटियां क्या हैं माँ के लिए --

एक बीता हुआ सा बचपन हैं
एक गुजर गया वो सावन हैं
माघ महीने की कुनकुनी सी धूप हैं
बेटियां बस माँ का ही प्रतिरूप हैं

कुछ जी लिया वो जीवन हैं
कुछ छूट गयीं वो आस हैं
शरद पूर्णिमा की पवित्र चांदनी है
तो कभी बैसाख में फागुनी बयार हैं

अपने जीवन के फलसफे हैं वो
अपने अनुभवों का निचोड़ हैं
जो जी लिए खुशी के वो लम्हें हैं
माँ के दिल की बेटियां तो धड़कन है

कहीं माज़ी की गलतियों के
सीखे कुछ सबक भी हैं
कुछ तीखे कुछ कड़वे
यादों के.अहसासों के ' घूँट भी हैं

हम भी मुकम्मल नहीं हैं न थे कभी
तंज़ उनके हमें सिखाते हैं
 बात कोई कहीं जो अखर जाये
अपने बुजुर्गों की याद भी दिलाते हैं

उनकी बातें कहीं जो गड़ती हैं
तो अपनी कही भी याद आती है
और कल की किसी बेरुखी पे आज
अफ़सोस में आँखें भी भीग जाती हैं

बेटियां क्या हैं माँ के लिए --
साध हैं आस हैं सबक हैं प्यास हैं
क्या ना कहें क्या-क्या कहें--
बेटियां बस अपना ही एक प्रतिरूप हैं ll

गुरुवार, 15 अक्टूबर 2015

बेफिक्र हँसी--

हंसी तो आती है अब भी मगर, 
 दिल खोल के हँसते हैं अब भी मगर
क्या बात है के ताजादम नही होते,
 क्या बात है वो रौनक अब नहीं आती

कितने बोझों तले दबी होती है,
कितने शिकवों की नज़र होती है ,
हर दिल को छू के गुज़र जाए जो ,
 वो बे फ़िक्र हंसी अब नहीं आती l

इक उम्र जो छू के गुजरती है ,
साथ ले जाती है वो गुल की रौनक ,
कहने को तो कली खिलती है ,
पर ओस की बूँद एक उड़ जाती है l

बचपन तेरी यादों का क्या कहना,
बचपन तेरी मासूमियत को सलाम
झरनो सी फूट कर जो बहती थी ,

मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015

तस्वीर--

एक तस्वीर देखी थी उस रोज किसी किताब में निकली थी
कुछ पहचानी सी दिखती थी
कुछ अपने गाँव घर सी दिखती थी

हाँ ; वो  दीवाल   पर लगी  खूँटी  से
  लग  रहा  था ; और  शायद ;
 फर्श  के  पत्थरों  ने  भी  कुछ  बताया  था
मुझे  पहचान  के कुछ  तो हंस  दिए  थे 
मेरी  नादानी  पे कुछ कुछ ने  मुंह  बनाया  था
 बचपन  गुजारा था  इसी  आँगन  में  
अब  यादें  भी  बदगुमां  हो  गयीं
 कितना  नाशुक्रा  है  आदमी
 ये  इशारे  में  हमसे  कह  गयीं
                                                                    वो गाँव ,वो घर ,वो आँगन ,
                                                                             कितने बेगाने हो गए
                                                                     रहते अब भी हैं लोग वहाँ पर
                                                                  कितने हम अजनबी से हो गए
कभी यादों की डोर थाम कर
जो कभी पर्दा सा उठाते हैं
वो आम की डालियाँ और
शादियों के गीत याद आते हैं
                                                                  वो आँगन के खटोलों में
                                                             सारी सारी रात की सुगबुगाहटें
                                                                    और पौ फटते ही
                                                                वो चाय की अलामतें   
                                                             
बर्तनो की लुक छिपी वो
वो कमरे -कमरे की तलाशियां
वो खिड़की ,ए -बखरी ,ओ- बखरी की दौड़
कुछ भी तो नहीं भूला
 ;                                                               वो गांव वो घर वो बचपन
                                                               बस हम ही अजनबी से हो गए
                                                               वो जिनसे रोज झगड़ लेते थे
                                                       आज भी मिल जाते हैं कभी चौराहे पर
चेहरे पे मुस्कान सजाये हुए
मगर कितनी बेगानी सी  मुस्कान
है  ये ,उन कुश्तियों के सामने

रविवार, 11 अक्टूबर 2015

तलाश-एक दौर की

पुरानी यादों में नए ज़माने के अक्स ढूढ़ते हैं
की हम झुर्रियों में खोये वो नक्श ढूंढते हैं
गुज़र चूका  जिन राहों पे इक उम्र का कारवां
मंज़िलों से पलट कर उन रास्तों के निशाँ ढूंढते हैं

खत कुछ बिन मज़्मून ,बिना नाम के जाने कहाँ पहुंचे
हम आज भी बेखबर किसी खत में अपना नाम ढूंढते हैं
कभी वक़्त में कभी रेत में कल जो बिखर के  रह गए
आज उन  बेखबर से लम्हों  की खोयी पहचान ढूंढते हैं

गुरुवार, 8 अक्टूबर 2015

बहुत तन्हा हूँ मैं ;

आज आवाज़ न दो कोई मुझे
बहुत तन्हा हूँ मैं ;
अपनी ही परछाइयोंके साथ
हल्की सी आहट भी
डरा देती है मुझको
कि आने वाला कोई -
--अपना न हो'
डर ;अब अँधेरों से नही लगता ;
उजालों की आमद से लगता है;
अँधेरों में अपना साया भी .
साथी ही सा लगता है ,
कहते हैं, जब दर्द बढ़ता है
गम की दवा बन जाता है ;
यूं ही खामोशिया तनहाइयाँ
अक्सर मुझसे बातें करती हैं .
आज रहने दो बस
 अकेला मुझे
मेरी परछाईयों केसाथ '
आज ;आवाज़ ना दो कोई मुझको
--आज बहुत तन्हा हूँ मैं

सोमवार, 5 अक्टूबर 2015

माँ के नाम पर

जलती हुई काशी धधकती हुई कशी
 और कराहती दादरी
दो माताएं और उनके आंसू पोंछने को
खून से सने वस्त्र लिए पुत्र
वाह रे प्रेम ,वाह री भावनाएं
गंगा माँ है;  हमारी है ;
चाहे गन्दा करें ,मैला करें ,
लाशों से पाट दें या के
खून की धाराएं बहा दें --हक़  है
तुम होते  भी  कौन  हो
 पूछने वाले, कहने  वाले, टोकने  वाले
गौऊ माता है
अधिकार हमारा है -मारेंगे नहीं
चाहे सडकों पे खुला छोड़ दें
 चाहे उसकी संतति को भूखा मार दें
सारा दूध निचोड़ के
तिजोरी भर लें
चाहे पीछे से कसाई को सौंप दें
 मारेंगे नहीं अपने हाथों से- वादा है
कसाई खाने चलाने देंगे
 विदेशों को जाने देंगे
पर तुम जो खाओगे तो ये अधर्म है
खाना है तो पांचसितारा में खाओ
अपने घर में तो हम न खाने देंगे
इन सारे किस्सों में एक और भी है- माँ
उपेक्षित अपमानित पीड़ित दुखित
भारत माँ -हर बार
 तलवार की धार से चीरा है सीना उसका
हर बार टुकड़े किये हैं उसके
कर डालो- फिर कर डालो
भूत, वर्तमान ,भविष्य; कुछ भी अनदेखा नहीं है तुमसे
आगत का भी अंदेशा है तुमको
फिर भी बढे जाओगे -मदहोश की तरह
उनकी राहों पे ,जो खड़े हैं
उस छोर पे खंजर लिए हुए
आगत भी छुपा नहीं तुमसे
फिर भी कर डालो -टुकड़े कर डालो
माँके -माँ के लिए माँ के नाम पर

रविवार, 4 अक्टूबर 2015

रक्तबीज--

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एक सवाल



  • SocialTwist Tell-a-Friendकोई नहीं जानता 
खुशियों के कदम कब भटक जाएंगे
आंसुओं की राह पे चलते चले जाएँगे
मुसकुराते इन चेहरों पे
कतरे अशकों के झिलमिलाएंगे
आबाद हैं ये घर अब तक
कल को लुट भी जाएँगे
कह सकता है कौन
कल तलक ये भी आबाद थे
भटकते हैं जो गली -गली ,
किसी घर के नूरे चिराग थे
पूछती हैं आँखें ये
 सवाली बन कर ;
खता क्या हो गई
कि घर से हो गए बेघर
पूछो इन सियासतदानों से
या मजहब के ठेकेदारों से
कि ख़्वाहिशों पे अपनी
 घर क्यों मासूमों के जलाते हो
बातें दीन -ओ धरम की  करते हो,
 क्यों इन पर न तरस खाते हो
दंगों में रोज़ जो मरते हैं
,हिन्दू नहीं मुसलमान भी नहीं वो
दम तोड़ते हैं जो नफरत में,
किसी घर के निगहबान है वो
झुलस जाएंगी कितनी कोंपलें,
 बिना घर की पनाहों के
भटक जाएगी रस्ता, मासूमियत ;
बिना सरपरस्तों की छाँव के
कैसे सोते हो चैन से
 घर जा के तुम ,
अपने बच्चों से नज़रें कैसे मिलाते हो
हैरान हूँ कि अब तक ज़िंदा हो ,
शर्म से मर भी नही जाते हो
रक्तबीज – हो क्या ‘
हर हैवा नियत में बढ़ते जाते हो
मरती तो है इंसानियत -
तुम तो बस कहकहे लगाते हो।

Homoeopathy Community

होम्योपैथी शायद सर्वाधिक कॉन्ट्रोवर्शियल पैथी या लाइन ऑफ़ ट्रीटमेंट -- इतनी छोटी मीठी गोलियां
मर्ज़ ठीक करेंगी -?कैसे /
फिर दवा का अंश भी तो नाम मात्र ही है -कैसे काम करती हैं --करती भी हैं -?
मगर फिर भी जब हर दरवाज़े से लौटते हैं खाली हाथ तो होम्योपैथी याद तो आती है -- थोड़े संदेह के साथ ,किसी के बताने पर ही सही , मगर याद तो आती है --और लोग कहते हैं -कि काम भी करती है और कभी कभी चमत्कार भी --जानना चाहते हैं --कैसे - तो आइये जुड़िये मेरे साथ --पूछिए अपने सवाल /शंकाएं
https://www.facebook.com/Homoeopathy-1040345242650499/timeline/