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यादों की चिड़िया

अब मिलना नही होता तुझसे कभी पर , तेरे ख़त अब भी मिल जाते हैं , बिखरे हुए दानों की तरह मुझे यूँ ही  कभी कभी,  झांकते हुए से   कभी इस पल्ले से ...

शुक्रवार, 23 अगस्त 2019

एकाकी

एकाकी
           फिसलती जाती है ज़िन्दगी यूँ हाथों से
             मानो समय नहीं-- रेत हो मेरे हाथों में   कण- कण, पल- पल, अलग- अलग;
 छितराया सा .
ढूँढती हूँ इनमें खुद को ;पाऊँ कहाँ
             -----      मैं जाऊं कहाँ -?
खो रही हूँ मैं ---कतरा कतरा
रीतते पल, छीजती जाती है ज़िन्दगी -!
                                                                        
रूमानियत न सजी जिन आंखों में कभी
वो ख्वाब जन्नत के दिखाए तो हंसी आती है
रिश्ते महज़ ज़िस्म से निभाये हों जिसने
बात वो इश्क की करे तो हंसी आती है

बांहे डाले बांहों में न चला हो कोई दो कदम
वो कहे कभी जो हमसफ़र तो हंसी आती है
मशवरों में जिसके कभी न हो मेरा शुमार
राह भटकने पे कहे रहबर तो हंसी आती है

जिसने कोशिश भी नही की मुझको पढ़ने की
खुद को कहे खुली किताब तो हंसी आती है
भटकता जो रहा उम्र भर दूसरी ही गलियों में
अपना घर ढूंढे जो चमन में तो हंसी आती है।
हदें और सरहदें
हम ही बनाते हैं
जब भी कहते हैं
कि हद हो गई
सीमाओं को ..
..और बढ़ा देते हैं।

सरहदों पे चलती गोलियां
सीना बच्चों का
चाक करती हैं
जब भी कहते हैं कि
अब सहना नही है..
बर्दाश्त और बढ़ा लेते हैं।

ये हदें जब तक रहेंगी
सरहदें जब तक रहेंगी
आदमी मरता रहेगा ।
और हदें जीती रहेंगी।
यही तो है वस्तुस्थिति pls share

हमने पीपल आम को पूजा
बुत में हमने मिट्टी को पूजा
अग्नि हवा को हमने पूजा
हमने पंचतत्व को पूजा

पर जीवन की आपाधापी में
हम मूल तत्व को भूल गए
जीवन की पूजा करते रहे
और अर्थ समझने भूल गए

जब तक हम गुरु कुल में पले
जीवन से जीवन की रीत गढ़ी
भिक्षाटन से देशाटन से  गुरु वंदन से
प्रश्नोत्तर की एक भीति गढ़ी

क्या सही गलत जाना समझा
उसको पाप पुण्य मे गूंथ दिया
जन सामान्य करे पालन कुछ ऐसी नीति का सृजन किया

पर धीरे धीरे फिर ह्रास हुआ हम प्रश्न महत्ता भूल गए
जो कहीं समझ मे ना आये
गुरु भी समझाना भूल गए

हमने नदिया नाले छोड़े
हमने जीवन धारे छोड़े
हमने जंगल वन उपवन छोड़े
हमने पर्वत प्यारे छोड़े

हमने पाठ तो सारे रट डाले
बस अर्थ समझना भूल गए
पर्वत पीपल जल आग हवा
को पूजते क्यों हैं भूल गए

न खुद समझा न समझा ही सके
अपने बच्चों को न बता ही सके
जल जीवन है समझाते रहे
पर बावड़ियों को पटवाते रहे

बचपन ने मन से प्रश्न किया
निर्जीव है जल थल और प्रकृति
जो स्वयम इशारे पे चलती
उसको हम अब भी क्यों पूजें
ये सहज बात मन मे आती

अनपढ़ लोगों ने बैठ के कुछ अनहोनी पद्धति बनवाई
डर लगता था जिन चीजों से उनकी ही पूजा करवाई

कुछ यही सोच जानी उभरी
जीवन की कुछ पद्धतियों में
खुद को औरों से श्रेष्ठ समझ
उलझे विज्ञान प्रयत्नों में

नए नए सब विश्लेषण
नए नए विज्ञान सृजन
जीवन जल सब कुछ भूल भाल
किया प्रकृति का भरसक दोहन

जंगल पर जंगल कटवाए
वन्यजीव भाग भीतर आये
तब भी तो न अपनी आंख खुली
थी अनाचार की हवा चली

अब अंत अंत चिल्लाते हैं
अब संचय की गाथा गाते हैं
पर अब भी हैं हम महामूढ़
जो अंत देख न पाते हैं

जलसंचय और वृक्षारोपन पर
जोर बहुत है पर फिर भी
कटवाने चले जंगल के जंगल
की विकास की रेल चले

(54000मैंग्रोव ट्रीज कटेंगे बुलेट ट्रेन चलाने के लिए मुंबई औरगुजरात केबीच )(2030तक पृथ्वी ऐसी स्थिति में पहुंच जाएगी जहां से वापसी का स्कोप नही अंत ही नियति होगी।मात्र 11 साल और क्लाइमेट इमरजेंसी की जगह बुलेट ट्रेन हमारी प्रायोरिटी,पॉलीथिन बैग न बन्द हो हमारी प्रायोरिटी)

स्नेह विवेचना

कितने कान्हा कितनी राधा
       जुग जुग से जीवन ये आधा
        कहीं उजाला कहीं अंधेरा
         चलता यूँ जीवन का फेरा
 मोहन की नटखट लीला ने
बदल दिया राधा का जीवन
जीवन भर बस होम हो गई
बन गोकुल के यज्ञ का तर्पण

           कृष्ण कन्हैया रास रचैया
            मुरली त्याग हुए योगेश्वर
           जीवन की उलझी राहों पर
           पेचीदा राजनीति के चक्कर
 मुरली फिर न बजी जीवन मे
 फिर भी बसी रही वो मन में
 सम्भव है क्या इस जग मेंअब
कृष्ण और राधारानी का स्नेह विवेचन

कल कोई ख्वाब सा

कल कोई ख्वाब सा देखा था तुम्हें--

अपनी ख्वाहिशों के झोंके पे
चाँद रातों में सिमटे हुए
इक नदी से सट के
किसी कश्ती में बहते हुए....

चाँद भी इक गवाह मेरा है
और सूनी रातों की रौशनाई भी
भीगी रातों में इक ग़ज़ल कह लूँ
साथ साये भी हैं,परछाईं भी

दूर तक फैले हुए थे सन्नाटे
पर कहीं एक चाप तेरी थी
गीत था फ़िज़ाओं पे बहता सा
तेरी महक में घुलती हवाएं थीं

कोई साया सा था वीराने में
कोई खोई ग़ज़ल थी बहती हुई
कुछ बारिशों की आहट थी
किरन एक लहरों पे तिरतीे हुई

कुछ नीम से अंधेरों में
कुछ रौशनी की झुरमुट में
इक चांदनी में घुलता हुआ
दूर कश्ती में किसी साये सा --

कल रात देखा था तुम्हे
मैंने किसी  ख्वाब सा

गुरुवार, 1 अगस्त 2019

ज्यूँ छलक उठा मन में सावन
ज्यूँ भीगी भीगी बहे पवन
ये मनभावन सी हंसी कहीं
मुझ पर करती है सम्मोहन

चितचोर हंसी मद्धम मद्धम
ये धूप खिली पत्तों पे छन-छन
ये आस उजास के दो दीपक
दें प्राण सखा को नवजीवन

खिलती बगिया खिलता उपवन
बहती बयार और नील गगन
चंचल चितवन में परिभाषित
कल कल निनाद करता जीवन


नश्वर में ईश्वर  का हो दर्शन
इन मृदु नयनों में ही सम्भव है
इस बालरूप पर मानव क्या
ईश्वर खुद भी सम्मोहित है