कोमल गातों को देखा है
नवजीवन के पुंज सरीखे
कितनी कलियाँ कितने कंछे।।
और राह चलो तो मिल जाती हैं
ढेरों सूखी बिखरी डाठें
मृतप्राय टूटती ;
मगर फिर भीऐंठी अकड़ी सी,
--रूढ़ियों जैसी ।।
मिट जाना ही श्रेयस्कर है
उस धर्मध्वजा का ,
जो मनुज मात्र को समझ सके ना
"उसका" अभिनन्दन
जो मनुज मात्र का , जीव मात्र का,
कर सके ना वन्दन।।
नवजीवन के पुंज सरीखे
कितनी कलियाँ कितने कंछे।।
और राह चलो तो मिल जाती हैं
ढेरों सूखी बिखरी डाठें
मृतप्राय टूटती ;
मगर फिर भीऐंठी अकड़ी सी,
--रूढ़ियों जैसी ।।
मिट जाना ही श्रेयस्कर है
उस धर्मध्वजा का ,
जो मनुज मात्र को समझ सके ना
"उसका" अभिनन्दन
जो मनुज मात्र का , जीव मात्र का,
कर सके ना वन्दन।।
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