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यादों की चिड़िया

अब मिलना नही होता तुझसे कभी पर , तेरे ख़त अब भी मिल जाते हैं , बिखरे हुए दानों की तरह मुझे यूँ ही  कभी कभी,  झांकते हुए से   कभी इस पल्ले से ...

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

सलीबों के दंश

मिट्टी भी जो पक जाती है
एक सांचे में ढल जाती है
रूप ,आकार नही बदल पाती
जबरी करोगे जो तो टूट जाती है।
पर बेटी कहो के नारी
हैसियत शायद मिट्टी से भी कम रखती है
ढाल कर उसको एक साँचेमे पचीसों बरस 
उम्मीद रखते हैं उसके अपने भी
की बदल देगी अपना चोला भी सिंदूर पड़ते ही
गैरों से फिर तो क्या ही उम्मीदें हैं।
आदर्श सिर्फ कोरे आदर्शों की उम्मीदे हैं औरत से ही क्यों
मानो उसकी जिंदगी नही सिर्फ आदर्श की सलीबें हों
जिनपे लटकते 
हर नई कील के दर्द में सीझते गुज़ार देती है उम्र पूरी
पर फिर जी नही पाती वो पच्चीस बरस ज़िन्दगी के 
जो छोड़ आई थी पीछे एक गठरी में बांध के

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