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यादों की चिड़िया

अब मिलना नही होता तुझसे कभी पर , तेरे ख़त अब भी मिल जाते हैं , बिखरे हुए दानों की तरह मुझे यूँ ही  कभी कभी,  झांकते हुए से   कभी इस पल्ले से ...

रविवार, 19 जुलाई 2020

सुलगते बचपन के दंश

कैक्टस देखे हैं ना!
पत्तियां सूख कर 
कांटों में तब्दील होती हुई,
दहकती भट्ठियों में उबलते बचपन भी,
 बस कांटे बन के चुभते रहते हैं ।
झार झार बहते आंसुओं में भी, उपवन न सही; 
बियाबान ही सही;
 उग जाते हैं ।
ठंढ और छांव की उम्मीद
 तो रहती है कहीं ।
कैक्टस तो दंश बन के चुभते ही रहेंगे उम्र 
हर वो दंश याद दिलाएगा वो कड़वाहट
जो उम्र भर झेली है 
किसी ने
और आज भी उसके विष से कोई आज़ाद नही।

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