कैक्टस देखे हैं ना!
पत्तियां सूख कर
कांटों में तब्दील होती हुई,
दहकती भट्ठियों में उबलते बचपन भी,
बस कांटे बन के चुभते रहते हैं ।
झार झार बहते आंसुओं में भी, उपवन न सही;
बियाबान ही सही;
उग जाते हैं ।
ठंढ और छांव की उम्मीद
तो रहती है कहीं ।
हर वो दंश याद दिलाएगा वो कड़वाहट
जो उम्र भर झेली है
किसी ने
और आज भी उसके विष से कोई आज़ाद नही।
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