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यादों की चिड़िया

अब मिलना नही होता तुझसे कभी पर , तेरे ख़त अब भी मिल जाते हैं , बिखरे हुए दानों की तरह मुझे यूँ ही  कभी कभी,  झांकते हुए से   कभी इस पल्ले से ...

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2019

The Loss--क्षति

माँ को खोने की पीड़ा और संताप समझा जा सकता है कुछ समझाया नही जा सकता...

 कुछ पीड़ाएं अंदर उतर जाती हैं
हमारे अन्तस् का हिस्सा ही बन जाती हैं
मानो तीखी छुरी सी छीले जाती हैं या
पिघले सीसे सी भीतर ही जलाती हैं
एक आर्तनाद जो मुखर नही होता
आंखें बरस के भी सूख चलती हैं
सावन नही आता
मन नही हरियाता
बचपन उसके साथ चला जाता है
फिर वापस नही आता
यही पीड़ा अनकही
यही दुख सर्वज्ञ
किसको कहूँ किसको सुनाऊं
खो चुकी हूं माँ को
कहाँ से पाऊं,
कहाँ से पाऊं.....??

रविवार, 21 अप्रैल 2019

बस यूँ ही--


प्यार मर जाता है
शब्दों के अभाव में;
सम्वेदनाओं की मौत पर
सर पटकता
प्यार मर जाता है
मूर्ख हैं जो समझते /समझाते हैं
कि प्यार मरता है
हाथ उठाने से,
तिशनों से, तानों से
लड़ने से ,झगड़ने से
पर नही ;
वो ज़िंदा है जब तलक
सम्वाद ज़िंदा है,
वो ज़िंदा है ,
जब तक भाव ज़िन्दा है।

कहीं दूर भी कोई अपना है
कहीं पास रह कर भी
कोई अपना नही होता
कहीं दूर से कोई भांप लेता है
कसक,आंखों की नमी,
आवाज़ की थर्राहट
और अंदाज़ से।
कोई बगल में
करवट बदल लेता है
बे अंदाज़ सा।

उस पर भी गरज़ ये की ढोये जा रहे हैं सलीब सभी अपना अपना
जिये जा रहे हैं बस क्योंकि मरना नही आता

मंगलवार, 16 अप्रैल 2019

अब कोई शाम नही आती
तेरा इंतज़ार लिए

बस एक सांस है
के तेरा नाम गाये जाती है

अलविदा तुझसे कहा भी नही जाता
सिलसिला तुझसे रखा भी नही जाता
वक़्त जो तय कर गया है एक सफर
उस राह पर वापिस पलटा भी नही जाता


रविवार, 14 अप्रैल 2019

श्रृंगार ..?

कृपया पूरा पढ कर ही प्रतिक्रिया व्यक्त करें

आज ही क्यों --? कहा किसी ने -
मैंने भी सोचा- आज ही क्यों?
बहुत सोचा ,
जेवर की तुलना बंधन से क्यों ?
अब क्यों ,आज क्यों ?
जेवर कोई बंधन तो नहीं शौक है .
कल था ,आज भी है l
खाली औरत थोड़े ही न पहनती है जेवर ,
बड़े आदमियों के चोंचले हैं सब l
पहले राजे महराजे नहीं पहनते थे क्या ?
धनिक सेठ साहूकार नहीं पहनते थे क्या?
आज भी पहनते हैं. बहुतेरे ;
औरते ,लड़कियां ,गांवों की, मॉडर्न भी ;
नहीं पहनती क्या ?
नहीं सजती क्या ?
अब क्यों...... ?
अब तो आजाद हैं ,स्वच्छंद हैं ,
अपने मन की हो गई हैं l
अपने पैरों पर खड़ी हैं l
अपने परों को फैलाना  सीख गई हैं l
फिर क्यों, फिर भी क्यों ;?
सजती हैं ,संवरती हैं ,
गहने भी पहनती हैं
भला अब क्यों ?,
सजना तो शौक है अपनी खुशी के लिए ;
जहर क्यों बोते हो ,जेवर को भला बेड़ी क्यों कहते हो ?
सच कहा ;
सजना तो शौक है ,
अपने लिए ,
पर वही शौक
 इक नाम से जुड़ जाए तो  ?
वही शौक इक मुहर बन जाये तो?
वही शौक रेख में बांध जाये तो?
वही शौक एक प्रतिस्पर्धा बन जाये ,
किसी एक को लुभाने ,लुभा कर रखने की
मजबूरी बन जाये तो ?
एक अस्तित्व का प्रश्न बन जाये तो ?
जहाँ खुद का अस्तित्व भी प्रश्नचिन्ह बन जाये तो?
और इन सब से ऊपर भी तो एक" तो है --
अगर वो एक न रहे तो -----??
क्या तब भी --
श्रृंगार एक शौक है
जेवर ,सजना  सब अपने लिए है
तो एक पल में श्रृंगार पाप क्यों ?
जेवर नाग क्यों ?
दंश क्यों दुनिया के सीने पर ?
जेवर ,श्रृंगार तो इच्छा की बात है
जेवर ,श्रृंगार : जेल नहीं बेड़ी नहीं
बांध रखने की जंजीर नहीं
फिर अचानक ?
क्या हुआ ?
कोई गया ,मेरा अपना गया
दुःख है पर मैं जिन्दा हूँ
मेरा स्वत्व जिन्दा
क्या मर जाती हैं इच्छाएं भी ,
किसी एक के साथ ?
क्या मर जाना चाहिए उन्हें किसी एक के साथ ?
या मार दिया जाता है उन्हें किसी अजन्मी कन्या भ्रूण की तरह
उपेक्षा और तिरस्कार के हथियार से प्रहार से
छीन ली जाती है उनसे जीने की ललक
सजने और श्रृंगार के अधिकार
अभिसार की चाह
पाप और परलोक  के भंवर
 सब उसके लिए 
इहलोक और उसके सुख उनके लिए
फिर भी --जेवर
नकेल नहीं श्रृंगार है
जिस पर हम सबका समान अधिकार है ---
ठीक है ----!!

रविवार, 7 अप्रैल 2019

चंद शेर


अपनी उतरन भी देते हैं तो अहसान की तरह
वो जान भी दे दें तो फ़र्ज़ उनका है


बड़ी खूबसूरत ये हिमाकत की है
के आज तूने खुद से मोहब्बत की है
बड़ा मुख्तसर सा है ये अंदाज़ जिये जाने का
तूफां से गुजरने की हमने भी  हिमाकत की है

उभरते नहीं कागजों पर तल्ख ज़ज़्बातों के हरूफ
एक पूरी किताब  मेरी   बन्द आंखों में है

तारीखों की वफ़ा देखें या अपनी उनसे बेवफाई
वो आती हैं जरूर और हम उनसे रूबरू नही होते

बहाना तक़दीर का ना होता तो जाने क्या हो गया होता
अपनी गलतियों पे शर्मिंदा हो कर इन्सां मर गया होता


आप बस जलती हूंई बहती हुई बूंदों की रवानी देखें
शमा बुझने को है सिर्फ वक़्त की मेहरबानी देखें

बेखौफ उम्र के सैलाबों के सीने पर ,मौजों पर तैरे
अब ढलती उतरती लहरों में कदमों की निशानी क्या ढूंढें

शनिवार, 6 अप्रैल 2019


कलकल बहते पानी को बदलते बर्फ में देखा है
तमाम दिल के रिश्तों को ज़र्रों में बिखरते देखा है
मुकम्मल इक कहानी को बेनाम ही बिकते देखा है
चांदी की चमकती रात को अमावस मे ढलते देखा है
मन्दिर  की इक मूरत को पैरों में रुलते देखा है
हंसती खिलती कलियों को कोठों पे सिसकते देखा है
सपनों की दहलीज पे भी माजी  की छाया लहराई
खुशियों की इस बारिश में मन को बंजर सा देखा है