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यादों की चिड़िया

अब मिलना नही होता तुझसे कभी पर , तेरे ख़त अब भी मिल जाते हैं , बिखरे हुए दानों की तरह मुझे यूँ ही  कभी कभी,  झांकते हुए से   कभी इस पल्ले से ...

मंगलवार, 12 जुलाई 2022

यादों की चिड़िया

अब मिलना नही होता तुझसे कभी पर ,
तेरे ख़त अब भी मिल जाते हैं ,
बिखरे हुए दानों की तरह
मुझे यूँ ही 
कभी कभी,
 झांकते हुए से 
 कभी इस पल्ले से ,कभी उस झरोखे से,
कभी बंद तालों में ,
कभी ऊंची ढकी बरसातियों में ,
कभी बरसों से खुली नही,
 उन किताबों में;
कुछ के जवाब कभी गए नही 
पर ज़ुबाँ की नोक पर रखे हुए हैं ;
आज भी,
कुछ लम्हों को याद करते आज भी जी मसोसता है 
कुछ छुपी खिलखिलाहटें  ,
सरगोशियां सुनाई देती हैं
कुछ बंद दरवाज़ों के पल्ले उघाड़ देती हैं 
तेरी चिट्ठियां ;
सम्हाली नही हैं मैने ,
बिखेर रखी हैं चावल के दानों की तरह 
यादों की चिड़िया आती रहेगी मेरे आंगन 
किसी बहाने तो

मंगलवार, 1 मार्च 2022

वार

अब डरो के दोज़ख जाहिर है अब डरो के सांसें हारी हैं
जब कहीं भी कब्र की राख उड़े सोचूं  अब किसकी बारी है

इंसाँ अब इंसाँ बचा कहाँ इंसाँ ने बाजी हारी है
हैवानों की इस बस्ती में लाशों की गिनती जारी है।

शनिवार, 1 जनवरी 2022

विश यू आ वेरी हैप्पी न्यू ईयर


एक चलन ही तो है वरना बदलता क्या है ?
समय के आकाश से झरते हैं लम्हे 
कुछ खुशियां कुछ नगमे कुछ आँसू
.. ठहरता क्या है?

कुछ ठहरे हुए लम्हे करवटें लेकर फिर  सो जाते हैं 
कुछ सहमे हुए रिश्ते थरथराते हैं और थम जाते हैं 
लगता है कि जीने की कवायद में खोता सा वुज़ूद
दो दिन को मचलता है
 ...फिर भी साँसों में  दरकता क्या है?
 
होश खो कर  सपनो में जिये जाते हैं
आज को भूल कर खुद को दिलासे दिए जाते हैं 
वक़्त की कोख से उपजती है वक़्त की ही फसल
बीज खुशियों के बिखरते तो उपजती हंसी 
नफरतों की हो बुवाई
........तो  बदलता क्या है ??

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2021

अदृश्य

भाव कोई कल्पना नही होते
 कुछ अदृश्य सी तरंगे होती हैं 
 
 ढूंढती हूँ बहुत दिनों से उन्हे 
जो गुम हो गये  है अंतस में मेरे

कभी हिया की पीर में कभी व्यथा के संग
कभी खामोशी के दर्पण में 
कभी शब्दों के व्यवहार में


कुछ ख्वाब हैं अधूरे कुछ रिश्ते रूठे हुए
खुशियां बिखरी हैं कुछ
 चाहतें भी कुछ हैं अपूर्ण
 
मन करता कभी रोने का
आंखें मींज सोने का
कभी मन करता हंसने का
खिलखिला के झूमने का
जी चाहता है आज मुझको कोई दिखाई न दे
या फिर मैं भी अदृश्य सी हो जाऊं

ममता को भी किसने देखा है
बिरला ही वंचित है इससे
 आगोश में जब भी लेती है तो 
 भर देती है मन आंगन को

अदृश्य है सूरज की गर्मी, 
पर इंद्रधनुष  सजता उससे
देखा किसने सुर तालों को
पर इनसे ही मधुर संगीत बने

कभी आसमान के आंसू को 
ओस में ढलते देखा है
कलियों की पुलक को खिल खिल कर
फूलों में विहंसते देखा है

छू जाए मन को वो सुकून 
दिखता ही नही इन आँखों को
बस इक अदृश्य सी खुशबू ये
मैं बन जाऊं तो तर जाऊं

मैं हरसिंगार  बन के श्रृंगार
कुछ तम हर लूँ अंधियारे का
कुछ वेग पवन से ऋण ले कर
फैला पाऊँ मन का प्रकाश/उजास

ज्यूँ सृष्टि रची उस ईश्वर ने 
कोई माला में धागे सदृश
खुद रहा अगोचर चित्रकार
फिर भी उद्भासित वो कलाकार

उसकी रचना हूँ मैं फिर भी चाहूं कि उसके समान 
कोई सृष्टि रचूँ में भी जिसमे बस जाएं बस मेरे मन प्राण
होऊं अदृश्य फिर भी मेरे निशान निष्प्राण न हों 
मेरी खुशबू से मेरी दुनिया मेरे बाद  सुवासित हो
  

मेरी परवाज़

मेरा ही अक्स है तू शायद
फिर भी तेरी ही बात है तुझमे
कुछ जीते हुए से सपने हैं
कुछ आसमाँ भी हैं शायद
मेरे सपनों की तू  इबारत है
मेरे कल का भी तुझपे साया है 
कुछ तल्खी भी खुशमिजाजी भी 
कुछ अरमानों का बोझ भी शायद

तेरा हौसला सिर्फ तेरा है 
मेरे हौसलों के पर चुक गए हैं अब तो 
आने वाले कल की आहट तू
 छुपते सूरज की लाली हम शायद

कल का आसमान तेरा है
हमने तुझको तेरी परवाज़ दे दी
नाप ले तू सारी दुनिया को
अब ये तेरी या रब की है मर्ज़ी।

मुड़ मुड़ के देखना न पीछे कभी
तेरी दुनिया का क्षितिज आगे है
कभी थक जाए गगन में उड़ते हुए 
तेरे अपनों का आँचल नीचे है 

जब भी चाहे मैं तेरी छांव बनूं 
जब भी सोए मैं तेरी ठाँव बनूं 
मेरी आहट तेरी दुनिया मे हमेशा रहे
कल को कभी मैं रहूं न रहूं।




मंगलवार, 29 जून 2021

पर्यावरण चिंतन -वस्तुस्थिति


अनपढ़ जो सुन कर करते थे
हमने भी अर्थ नही ढूंढा
वो आंख मूंद कर चलते रहे
हमने भी मर्म नही बूझा

जल जीवन है जल संचय करो
हमने शावर और टब घर घर बनवाये
वो तालाब बावड़ी बनवाते
हमने वो सारे पटवाये

वो धर्मकार्य के हेतु सदा फलदार वृक्ष लगवाते रहे
हम बुलेट ट्रेन चलवाने को हजारों पेड़ कटवाने चले

वो बरगद पीपल पूजते थे 
हमने जंगल के जंगल कटवाए
वो वहम के मारे अनपढ़ थे
हम खुद को ज्ञानी साबित कर आये

अब त्राहि त्राहि हम करते हैं संचय जल की बातें करते है
जीवन संकट जब सन्मुख आया
अनपढ़ को याद हम करते हैं

शुक्रवार, 25 जून 2021

बिछोह!

क्या माता का उर न कातर होता होगा?
छलनी क्योंकर न कलेजा होता होगा।
तुझको विदग्ध यूँ देख देख  क्या हृदय न वो फटता होगा?
माता की पीर हृदय में रख
निजव्यथा से उठ सन्धान करो
हर माँ में वो छवि  निरख निरख कर्तव्य को अंगीकार करो।
भगवान इस अपार दुख को सहन करने की शक्ति आपको प्रदान करें ।

गुरुवार, 24 जून 2021

शायद...!!


शायद कोई पत्ता खड़के शायद कोई उम्मीद जगे
शायद नदिया थम जाए,शायद तुम सच मे आ जाओ

शायद कोई आस जग जाए नई ,शायद कोई तो कांधा हो ,
थक जाने पर सुस्ताने को या फिर  कोई राह दिखाने को
शायद मेरे कदमो के नीचे भी कभीअपने हाथ बिछाये कोई
शायदमेरे सपनों के दिये में कभी बाती बन उजास लाये कोई
शायद कोई टूट के चाहे शायद कोई साथ निभाता हो
शायद मेरे मुश्किल पथ में कोई मेरा साथ निभाता हो।
सपनो की इस दुनिया मे शायद कोई शक्ल कभी उभरे
शायद इस जीवन पथ में कभी कोई रोशन दीप कभी उभरे 
शायद...