एक चलन ही तो है वरना बदलता क्या है ?
समय के आकाश से झरते हैं लम्हे
कुछ खुशियां कुछ नगमे कुछ आँसू
कुछ ठहरे हुए लम्हे करवटें लेकर फिर सो जाते हैं
कुछ सहमे हुए रिश्ते थरथराते हैं और थम जाते हैं
लगता है कि जीने की कवायद में खोता सा वुज़ूद
दो दिन को मचलता है
...फिर भी साँसों में दरकता क्या है?
होश खो कर सपनो में जिये जाते हैं
आज को भूल कर खुद को दिलासे दिए जाते हैं
वक़्त की कोख से उपजती है वक़्त की ही फसल
बीज खुशियों के बिखरते तो उपजती हंसी
नफरतों की हो बुवाई
........तो बदलता क्या है ??
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