लड़कियां ऐसी ही जन्म लेती हैं ;
खिलती ,खेलती ,
किसी जंगली बेल सी बढ़ती बेपरवाह !!
पर उन्हें तराशा जाता है ,
उनके सपनों के कंछों को
कतर के ,
कभी उनकी जड़ो को तारों से जकड़ कर ,
कभी नपा-तुला भोजन ,
कभी इंच -दो इंच मुस्कुराहट ,
पनपती गाछ को
बेदर्दी से उखाड़ दिया जा कर।
उसे सजना सिखाया जाता है ,
दूसरों के लिए
खूबसूरत शीशों में घेर कर ।
भविष्य में
किसी आलीशान बंगले के खूबसूरत बैठके की
शोभा बन सके ,
नक्काशीदार मेज पे सजे किसी गुलदान में।
छीन कर उसकी स्वच्छन्दता,उन्मुक्तता
बँधने को किसी बन्धन में
तराशा जाता है उसे।।
चेतना
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