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यादों की चिड़िया

अब मिलना नही होता तुझसे कभी पर , तेरे ख़त अब भी मिल जाते हैं , बिखरे हुए दानों की तरह मुझे यूँ ही  कभी कभी,  झांकते हुए से   कभी इस पल्ले से ...

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

सलीबों के दंश

मिट्टी भी जो पक जाती है
एक सांचे में ढल जाती है
रूप ,आकार नही बदल पाती
जबरी करोगे जो तो टूट जाती है।
पर बेटी कहो के नारी
हैसियत शायद मिट्टी से भी कम रखती है
ढाल कर उसको एक साँचेमे पचीसों बरस 
उम्मीद रखते हैं उसके अपने भी
की बदल देगी अपना चोला भी सिंदूर पड़ते ही
गैरों से फिर तो क्या ही उम्मीदें हैं।
आदर्श सिर्फ कोरे आदर्शों की उम्मीदे हैं औरत से ही क्यों
मानो उसकी जिंदगी नही सिर्फ आदर्श की सलीबें हों
जिनपे लटकते 
हर नई कील के दर्द में सीझते गुज़ार देती है उम्र पूरी
पर फिर जी नही पाती वो पच्चीस बरस ज़िन्दगी के 
जो छोड़ आई थी पीछे एक गठरी में बांध के

रविवार, 19 जुलाई 2020

सुलगते बचपन के दंश

कैक्टस देखे हैं ना!
पत्तियां सूख कर 
कांटों में तब्दील होती हुई,
दहकती भट्ठियों में उबलते बचपन भी,
 बस कांटे बन के चुभते रहते हैं ।
झार झार बहते आंसुओं में भी, उपवन न सही; 
बियाबान ही सही;
 उग जाते हैं ।
ठंढ और छांव की उम्मीद
 तो रहती है कहीं ।
कैक्टस तो दंश बन के चुभते ही रहेंगे उम्र 
हर वो दंश याद दिलाएगा वो कड़वाहट
जो उम्र भर झेली है 
किसी ने
और आज भी उसके विष से कोई आज़ाद नही।

गुरुवार, 9 जुलाई 2020

भर पाये

कभी दिल कह रहाहै
बहुत हुआ 
अब जाने दो
कुछ होता है 
उँह!हो जाने दो।
भर पाए अब इस जंजाल से
ऊब चले अब रोज के बवाल से।
इसको रोकना अब सम्भव नही है
लोग पढ़े लिखे हैं ,अनपढ़ नही है
क्या करें पर भावना में बह जाते हैं
छोटी ही सही 
पर महफिलें सजाते हैं
हाथ गले मे डाल बस फोटुएं खिंचाते हैं
और हम वज्रमूर्ख से लोगों को
सोशल डिस्टेनसिंग समझाते हैं
घर आने वालों को 
दूर से नमस्कार करते हैं ।
हम कोविड और 
लोग कोरोना चिल्लाते हैं।
बस हम जो कहते हैं 
कर के बुरे बनते हैं
लोग कर के 
हाथ जोड़ निकल जाते हैं
अब कभी लगता है हमे 
के हम पैरानॉयड हो गए हैं 
लोग समझदार और हम 
गाफिल हो गए हैं ।
अगर यही करना है 
तो ऐ मन चलो काम करो
बहुत हो चुका 
न अब आराम करो 
जो होना है होगा 
जिसको जीना मरना है
जिसको जाना है जाएगा
तुम भी अब अपना काम करो 
अब ना आराम करो।

गुरुवार, 2 जुलाई 2020

जीवन

जीवन क्या है -
एक भावप्रवण बहती सरिता।
इक उद्गम , इक उन्मूलन है।
बीच मे बहता हास्य इधर,
 उस छोर बह रहा क्रंदन है।
उन्मीलित सृष्टि के नयनों की
जब भी तुम झांकी पाओगे ,
शाश्वत मृत्यु को जीवन का 
संचालन करता पाओगे।
इस प्रखर, प्रकट ,
ध्रुव सत्य शिखर पर 
दो अश्रु विसर्जन  कर धीर धरो,
ये कृष्ण वचन है 
अर्जुन तुम 
अब जीवकर्म गांडीव गहो।।