मिट्टी भी जो पक जाती है
एक सांचे में ढल जाती है
रूप ,आकार नही बदल पाती
जबरी करोगे जो तो टूट जाती है।
पर बेटी कहो के नारी
हैसियत शायद मिट्टी से भी कम रखती है
ढाल कर उसको एक साँचेमे पचीसों बरस
उम्मीद रखते हैं उसके अपने भी
की बदल देगी अपना चोला भी सिंदूर पड़ते ही
गैरों से फिर तो क्या ही उम्मीदें हैं।
आदर्श सिर्फ कोरे आदर्शों की उम्मीदे हैं औरत से ही क्यों
मानो उसकी जिंदगी नही सिर्फ आदर्श की सलीबें हों
जिनपे लटकते
हर नई कील के दर्द में सीझते गुज़ार देती है उम्र पूरी
पर फिर जी नही पाती वो पच्चीस बरस ज़िन्दगी के
जो छोड़ आई थी पीछे एक गठरी में बांध के