
मैं सीता नहीं ,सती नहीं ,सावित्री नहीं
कोई चाहत, लोई ख्वाहिश भी नहीं ;
कोई राम, किसी शिव का भी तो पता दो मुझको -
दोहरी मानसिकता में जीते हुए लोग ,
और सिन्दूर की लक्ष्मणरेखा में कैद मन,
कब आज़ाद होंगे हम ?
कब आज़ाद होंगे मन ?
ऐसी ही इक रेख और बनाओ न ;अपने लिए !
पवित्रता. पतिव्रता, सतीत्व ,लोकलाज ,मर्यादा
सब मेरे ही आँचल में क्यूूँ ?
मेरी झोली भर डाली इन शब्दों से ;,
कुछ अपने लिए भी रख लेते
मेरा ये जीवन; कुछ तुम भी तो जी लेते !,
शायद- समझ पाते इस वीरानी को ,
जहां ;दूर से, इक पत्ता भी खड़कता है
तो मानो बहार आ गयी ,
इक बूँद ओस की गिरती है
तो मानो सागर छलक उठे ;
पर कोई आवाज़ .कोई आहट नहीं- बरसों बरसों
इंतज़ार में इक कुहुक के,
बैठी रही बरसों बरसों --!
चलो फिर जगहें अपनी बदल लेते हैं,
मैं राम- तुम सीता. मैं कृष्ण -तुम राधा
मैं स्वच्छंद -तुम बंधन में---- इक रेख से --

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें