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यादों की चिड़िया

अब मिलना नही होता तुझसे कभी पर , तेरे ख़त अब भी मिल जाते हैं , बिखरे हुए दानों की तरह मुझे यूँ ही  कभी कभी,  झांकते हुए से   कभी इस पल्ले से ...

बुधवार, 14 मार्च 2018

प्रेम प्रकृति


पेड़ों की ओट में खिलता सा चॉंद है 
यामिनी में मधुर गीतों का राग है
गूँजता हर तरफ सृष्टि
का किलोल है
नीरवता भी इस समय हुई वाचाल है।

प्रेम तो प्रेम है किस एक पल का नाम लूँ
नेह की ही डोर है हाथों में थाम लूँ
कोई सॉंकल ही नहींके जिसमें इसको बॉंध लूँ
तेरी रौशनी बै चन्द्रिका सी हर तरफ समाई है।

तेरी याद तेरा साथभावों से भर गया
तू ही तू है हर तरफ मैं कहॉं बिखर गया
आसमान तेरा गीत खुद मुझे सुना गया
तू भाव बन के व्योम सा क्षितिज में समा गया।

मेरे मीत मेरी प्रीत का गीत तू संगीत तू
मेरी अर्चना भी तू मेरी आराधना भी तू
मेरे शब्द मेरे अर्थ मेरी वाक्य रंजना में तू
मेरी सॉंस मेरी आस मेरी हर झलक में तू ।

मैं रहूँ ना रहूँ तू रहे दिगंत तक 
तेरे मेरे साथ के सपने पलें निज अंत तक।।

रविवार, 11 मार्च 2018

वर्जनाएँ

वर्जनाओं में बँधी जिन्दगी
जब भी तोड़ती है कोई श्रृँखला
उमड़ती वेग से ,
बहा ले जाती है साथ ,
 सभी वर्जनाएँ,
साथ ही सभी मर्यादाएँ
जैसे तटबन्ध तोड़ती नदी
टूटते बॉंध--
वेग नहीं देखता सीमाएँ
बहा ले जाता है सभी कुछ
अच्छा- बुरा,जीव- निर्जीव--
वेग को बहाव दो
सीमित सन्तुलित बहाव
बाँधो मत
समझो तो ,दिशा उसकी,
मोड़ देना है -- दो--
मगर ,धीरे से हौले -हौले
वर्जनाएँ ही तो हैं ,
 कांस्य कलश,
कभी चाँदी ,कभी सोने के कलश,---
-----जंजीरें
और अस्तित्व औरत का..
घड़ा... मिट्टी सा..
चुपचाप ,सॉंस थामे
बैठे रहे(दुबके रहे) छॉंव में
तो सही
टकराए,टूट जाए या
राह बदल ले
सम्भव नहीं होता हरदम
तो विनाश तो तय है...
वेग ठहर सकता है ,
पल  ...दो पल'
रुक नहीं सकता,
बहता है..... बहने दो l
अन्यथा ,विनाश को आमन्त्रित कर
विनाश पर क्रन्दन क्यों..?

शुक्रवार, 9 मार्च 2018

महिला दिवस

मैं सीता नहीं ,सती नहीं ,सावित्री नहीं 


कोई चाहत, लोई ख्वाहिश भी नहीं ;
कोई राम, किसी शिव का भी तो पता दो मुझको - 
दोहरी मानसिकता में जीते हुए लोग ,
और सिन्दूर की लक्ष्मणरेखा में कैद मन,
कब आज़ाद होंगे हम ?
कब आज़ाद होंगे मन ?
ऐसी ही इक रेख और बनाओ न ;अपने लिए !
पवित्रता. पतिव्रता, सतीत्व ,लोकलाज ,मर्यादा 
सब मेरे ही आँचल में क्यूूँ ?
मेरी झोली भर डाली इन शब्दों से ;,
कुछ अपने लिए भी रख लेते 
मेरा ये जीवन; कुछ तुम भी तो जी लेते !,
शायद- समझ पाते इस वीरानी को ,
जहां ;दूर से, इक पत्ता भी खड़कता है
तो मानो बहार आ गयी ,
इक बूँद ओस की गिरती है 
तो मानो सागर छलक उठे ;
पर कोई आवाज़ .कोई आहट नहीं- बरसों बरसों 
इंतज़ार में इक कुहुक के,
बैठी रही बरसों बरसों --!
चलो फिर जगहें अपनी बदल लेते हैं,
मैं राम- तुम सीता. मैं कृष्ण -तुम राधा 
मैं स्वच्छंद -तुम बंधन में---- इक रेख से --

गुरुवार, 8 मार्च 2018

अकुलाहट

 आज ही क्यों --? कहा किसी ने -
मैंने भी सोचा- आज ही क्यों?
बहुत सोचा ,
जेवर की तुलना बंधन से क्यों ?
अब क्यों ,आज क्यों ?
जेवर कोई बंधन तो नहीं शौक है .
कल था ,आज भी है l
खाली औरत थोड़े ही न पहनती है जेवर ,
बड़े आदमियों के चोंचले हैं सब l
पहले राजे महराजे नहीं पहनते थे क्या ?
धनिक सेठ साहूकार नहीं पहनते थे क्या?
आज भी पहनते हैं. बहुतेरे ;
औरते ,लड़कियां ,गांवों की, मॉडर्न भी ;
नहीं पहनती क्या ?
नहीं सजती क्या ?
अब क्यों...... ?
अब तो आजाद हैं ,स्वच्छंद हैं ,
अपने मन की हो गई हैं l
अपने पैरों पर खड़ी हैं l
अपने परों को फैलाना  सीख गई हैं l
फिर क्यों, फिर भी क्यों ;?
सजती हैं ,संवरती हैं ,
गहने भी पहनती हैं
भला अब क्यों ?,
सजना तो शौक है अपनी खुशी के लिए ;
जहर क्यों बोते हो ,जेवर को भला बेड़ी क्यों कहते हो ?
सच कहा ;
सजना तो शौक है ,
अपने लिए ,
पर वही शौक
 इक नाम से जुड़ जाए तो  ?
वही शौक इक मुहर बन जाये तो?
वही शौक रेख में बांध जाये तो?
वही शौक एक प्रतिस्पर्धा बन जाये ,
किसी एक को लुभाने ,लुभा कर रखने की
मजबूरी बन जाये तो ?
एक अस्तित्व का प्रश्न बन जाये तो ?
जहाँ खुद का अस्तित्व भी प्रश्नचिन्ह बन जाये तो?
और इन सब से ऊपर भी तो एक" तो है --
अगर वो एक न रहे तो -----??
क्या तब भी --
श्रृंगार एक शौक है
जेवर ,सजना  सब अपने लिए है
तो एक पल में श्रृंगार पाप क्यों ?
जेवर नाग क्यों ?
दंश क्यों दुनिया के सीने पर ?
जेवर ,श्रृंगार तो इच्छा की बात है
जेवर श्रीनगर जेल नहीं बेड़ी नहीं
बांध रखने की जंजीर नहीं
फिर अचानक ?
क्या हुआ ?
कोई गया ,मेरा अपना गया
दुःख है पर मैं जिन्दा हूँ
मेरा स्वत्व जिन्दा
क्या मर जाती हैं इच्छाएं भी ,
किसी एक के साथ ?
क्या मर जाना चाहिए उन्हें किसी एक के साथ ?
या मार दिया जाता है उन्हें किसी अजन्मी कन्या भ्रूण की तरह
उपेक्षा और तिरस्कार के हथियार से प्रहार से
छीन ली जाती है उनसे जीने की ललक
सजने और श्रृंगार के अधिकार
अभिसार की चाह
पाप और परलोक  के भंवर
 सब उसके लिए 
इहलोक और उसके सुख उनके लिए
फिर भी --जेवर
नकेल नहीं श्रृंगार है
जिस पर हम सबका समान अधिकार है ---
ठीक है ----!!