कुछअनकही..कुछ अनसुनी..
अब मिलना नही होता तुझसे कभी पर , तेरे ख़त अब भी मिल जाते हैं , बिखरे हुए दानों की तरह मुझे यूँ ही कभी कभी, झांकते हुए से कभी इस पल्ले से ...
अब डरो के दोज़ख जाहिर है अब डरो के सांसें हारी हैं जब कहीं भी कब्र की राख उड़े सोचूं अब किसकी बारी है
इंसाँ अब इंसाँ बचा कहाँ इंसाँ ने बाजी हारी है हैवानों की इस बस्ती में लाशों की गिनती जारी है।